" माँ सच कहना क्या बोझ हूँ मैं
इस दुनिया की गंदी सोच हूँ मैं
क्या मेरे मरने से दुनिया तर जाएगी
सच कहना या मेरे आने ज्यादा भर जाएगी
क्यूँ साँसो का अधिकार मुझसे छीन रहे हो
मुझको कंकर जैसे थाली का कोख से बीन रहे हो
क्या मेरे आने से सब भूखो मर जायेंगे
या दुनिया की हर दौलत हडप कर जायेंगे
पूछ जरा पुरुष से ,
"उसके पौरुष की परिभाषा क्या है "
जननी की जरूरत नहीं रही या
जन लेगा खुद को खुद ही ?
हर मर्यादा तय करके भी उसको चैन नहीं
भोर नहीं होती जब होती रैन नहीं
कह देना कह देना दुनिया में तो उसको मुझे लाना होगा
वरना आगमन को पुरुष को खुद ही समझाना होगा
जितना मुझको लील रहा है कह देना
दर्द बेटे न मिलने का फिर सह लेना
वंशबेल की शाख अधूरी रह जाएगी
पूरी होगी तभी
" जब लडकी धरती पर आएगी ".
--- विजयलक्ष्मी
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