Sunday, 20 July 2014

और मन की कांवड़....... जल चढाने काँधे चढ़ी

" टूटकर गिर रहा वक्त पिस पिसकर क्यूँ भला 
और टूटकर रिस रहा है पत्थर 
अगर नहीं तो ये बता .." बहते हैं क्यूँ सोते पहाड़ से" 
और झरने क्यूँ नदी से हो गये 
जम गयी है आग मन में बर्फ सी 
फिर पिघलती ही मिलेगी सदियों तक देखना 
तय करती है सफर ख्वाब-कश्ती युभी इम्तेहान सा 
और मन की कांवड़....... जल चढाने काँधे चढ़ी 
हर बढ़ता हुआ कदम विश्वास बस विश्वास का है 
खंडित हो रहे इन्सान के भीतर जलती अखंड ज्योत सी आस का है "--- विजयलक्ष्मी

No comments:

Post a Comment