" सडक पर साहित्य का तमाशा..बुद्धिजीवियों में हताशा
अज्ञानियों के हाथ में वेदों की व्याख्या
जंगल काट दोगे धुर तलक तो जरूरी है शेरो का आना गाँव में
हर बयाँ लहू का कहता है जान की बाजी लगी किस तौर है
संसद में विपक्ष का भी शाही अंदाज में लिपटी मुफलिसी का दौर है
देश को बेचकर भी चैन से खोया नहीं जिनका वही उँगलियाँ उठाये हैं
पीढ़ियों से औलाद जिनकी आतंक मचाये हैं
समन्दर में तैरने वाला ही मरता है प्यास से याद है मुझे
चटकी हुई धूप में बारिश के बाद टूटकर गिरते हुए पहाड़ देखलो
कुछ सड़के एसी भी है जो जाने के बाद दिखती है लौटती मगर लौटती कब है तुम जानते हो ये सच
तुमने सोचा होगा सन्नाटा पड़ा है सब सो गये हैं चैन से
बरसे है बादल अहसास के तुम्हारी आँख से किस कदर नाव कम पड़ने लगी है निकलने के लिए
उठती लहर ने लील डाले हैं कितने घरों के चिराग
जमी की तो क्या कहे आसमान में हवाए भी लगाने लगी है आग
जिन्दगी मोहताज नजर आने लगी
सभ्यता का कौन सा मोड़ है ये जिन्दगी गगन में ही जल मरी
तुम न कहते थे ..कठिन दौर होगा ए जिन्दगी तुम्हारा
बिन फाटक की रेल ने आँखों का उजाले ही रौंद डाले
समय की धार बहती जा रही है निस्पृह सी जिंदगियों को लीलकर जैसे कुछ हुआ नहीं
हाहाकार जो मचा है बहते हुए लहू में बताना भी मुश्किल है
कठिन दौर होता है इंतजार का वही करने को कुछ नहीं हाथ में और काम पड़े हो ढेर से
अहसास की चांदनी तान कर दूरतक खड़े हो जिस किनारे पर
देख लेना एक दिन तुम स्पर्श करती रेखा से त्रिज्या से केंद्र बने देखोगे खुद को
और एक ही आंसू बहेगा आधा आधा हमारी तुम्हारी आँख से
जिसमे ख्वाब जिन्दा दिखेंगे मरने बाद भी
मेरे भी
और ...तुम्हारे भी
शायद एक दिन
लो मिल गया तेजाब लहू से मेरे भी" ---- विजयलक्ष्मी
अज्ञानियों के हाथ में वेदों की व्याख्या
जंगल काट दोगे धुर तलक तो जरूरी है शेरो का आना गाँव में
हर बयाँ लहू का कहता है जान की बाजी लगी किस तौर है
संसद में विपक्ष का भी शाही अंदाज में लिपटी मुफलिसी का दौर है
देश को बेचकर भी चैन से खोया नहीं जिनका वही उँगलियाँ उठाये हैं
पीढ़ियों से औलाद जिनकी आतंक मचाये हैं
समन्दर में तैरने वाला ही मरता है प्यास से याद है मुझे
चटकी हुई धूप में बारिश के बाद टूटकर गिरते हुए पहाड़ देखलो
कुछ सड़के एसी भी है जो जाने के बाद दिखती है लौटती मगर लौटती कब है तुम जानते हो ये सच
तुमने सोचा होगा सन्नाटा पड़ा है सब सो गये हैं चैन से
बरसे है बादल अहसास के तुम्हारी आँख से किस कदर नाव कम पड़ने लगी है निकलने के लिए
उठती लहर ने लील डाले हैं कितने घरों के चिराग
जमी की तो क्या कहे आसमान में हवाए भी लगाने लगी है आग
जिन्दगी मोहताज नजर आने लगी
सभ्यता का कौन सा मोड़ है ये जिन्दगी गगन में ही जल मरी
तुम न कहते थे ..कठिन दौर होगा ए जिन्दगी तुम्हारा
बिन फाटक की रेल ने आँखों का उजाले ही रौंद डाले
समय की धार बहती जा रही है निस्पृह सी जिंदगियों को लीलकर जैसे कुछ हुआ नहीं
हाहाकार जो मचा है बहते हुए लहू में बताना भी मुश्किल है
कठिन दौर होता है इंतजार का वही करने को कुछ नहीं हाथ में और काम पड़े हो ढेर से
अहसास की चांदनी तान कर दूरतक खड़े हो जिस किनारे पर
देख लेना एक दिन तुम स्पर्श करती रेखा से त्रिज्या से केंद्र बने देखोगे खुद को
और एक ही आंसू बहेगा आधा आधा हमारी तुम्हारी आँख से
जिसमे ख्वाब जिन्दा दिखेंगे मरने बाद भी
मेरे भी
और ...तुम्हारे भी
शायद एक दिन
लो मिल गया तेजाब लहू से मेरे भी" ---- विजयलक्ष्मी
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