Friday, 25 July 2014

"फाख्ता सी याद मुंडेर उतरते रहे"

" बेरंग सी राहे मिली बहुत 
हम उनमे ही रंग भरते रहे 

गुजरते मिले नक्श ए कारवाँ
सब उसी डगर से गुजरते रहे 

जहर भरा कूजा ए जिंदगानी 
उम्रभर उसी को निगलते रहे 

बंजर जमी फसल को तरसती 
मन बदरा बना हम बरसते रहे

लहर से मचलना सीखू कैसे 
नाखुदा संग डूबते उतरते रहे 

अहसास समन्दर में तिरे खूब 
फाख्ता सी याद मुंडेर उतरते रहे "--- विजयलक्ष्मी 

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