Sunday 27 July 2014

काश कह सकती मैं ,तुम्हे "ईद मुबारक हो "



काश कह सकती तुम्हे "ईद मुबारक हो "
किसे दूं ...बताओ कैसे कहूं ,लहू बिखरा पड़ा है मेरा 
क्या नजर-अंदाज कर दूं लुटता आंचल 
क्या नजर-अंदाज कर दूं टूटती पायल 
वो खंजर ,,लहू गिर रहा है जिससे रिसकर
वो आँख रिस रहे हैं ख्वाब जिसके भीगकर 
आग तो जल रही हैं नापाक इरादों सी
ममता आंचल तो टुकड़े टुकड़े बिखरा पड़ा है दूर तक 
युद्ध से शुद्ध हुआ कौन ..तलवार लेकर प्रबुद्ध दिखा कौन 
ये कौन डूबा है लहू नद में जो दर से निकलकर बह उठी हर द्वार तक
क्या नमाज क्या पूजा ,,खुदा कहाँ बैठा है ढूंढना होगा
पूछना तुम भी ...क्या वो वक्त कभी आयेगा
जब नयन रतनारे होंगे
इन्सान इन्सान के प्यारे होंगे
उद्वेलित आवेग को किनारे मिलेंगे
और उठती हूक की भरपाई किसी के लहू से नहीं होगी
नहीं जलेंगे घर .,,मकान नहीं होंगे
आग में लहराते परचम दूकान नहीं होंगे
और सावन की हरियाली चैन से झुला झूल सकेगी
जलधार तो गिरेगी मगर बन फुहार खुशियों की
नयनों से बादल नहीं बरसेंगे
रमजान में राम ही राम होंगे ...चैन की मुरुली बजाते घनश्याम होंगे
नूर का हूर चमकेगा ..नहीं ईमान दूर ढलकेगा 

फिर कोई फातिमा नहीं रोती मिलेगी ..कौन विश्वास देगा मुझको 
नहीं चमकेगी कोई तलवार किसी गर्दन पर
और कह सकूंगी मैं तुम्हारे कानों में मुस्कुराके "ईद मुबारक हो "
किसे दूं ...बताओ कैसे कहूं ,लहू बिखरा पड़ा है मेरा
क्या नजर-अंदाज कर दूं लुटता आंचल
क्या नजर-अंदाज कर दूं टूटती पायल
वो खंजर ,,लहू गिर रहा है जिससे रिसकर
वो आँख रिस रहे हैं ख्वाब जिसके भीगकर
आग तो जल रही हैं नापाक इरादों सी

क्या सच में खुशिया बांटने का अवसर है ये 
और देख सकूंगी तुम्हे मुस्कुराते सुनकर वही शब्द अमन औ ईमान के 
खिलखिलाते हुए जब तुम्हारी लाइ नई ओढ़नी ओढकर "ईद मुबारक हो "---- विजयलक्ष्मी



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