अश्क है या मोती कैसे पहचाने हम,
देखते है इनमे जिन्दगी के पैमाने हम .
तन्हा होकर भी नहीं रहते ये सच है
बेखुदी में चले खुद को आजमाने हम.
ये पैरहन से शब्द औ ओस की बुँदे
लिखकर वही नाम चले मिटाने हम .
चिड़िया सा चहक उठता है मन यूँही
बिखरी मायूसी को चले बुझाने हम.
राख में चिंगारी रखी हो शायद कोई
आओ क्रांति की आग चले जलाने हम .- विजयलक्ष्मी
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