Wednesday, 3 October 2012

चुप बिखरते रहे उसपे भी हंगामा बरपा रहे हों ...

नयन में ख्वाब मेरे खोए से दिखे ,
ललकार दूँ तो झंकार सी उठे ,..
जाने कौनसा समन्दर जो प्यासा सा बैठा है ,
रेत की तहरीर सी उडकर चुभती है क्यूँ भला ..
शिलापट्ट पर लिखे को भी गुमनाम तुमने कहा ,
लड़ते कोई गैर होता,,, तो सीने में चाकू उतार देते ,
गिरते हों शबनमी से अहसास बता कैसे भौक दे छुरी ...
शाहदत लिखी हों जिसके नाम पर आइना सी नजर में ..
चमक उठे नयन नम होकर भी पलको के घूंघट में ,
जख्म मिले, मिटाने की 

तमन्ना खत्म हों ...
दर्द का अहसास इतना जब दर्द को भी दर्द न लगे ..
बस मुस्कुराकर छोडना अच्छा ....
परिधि पर खड़े हों अपलक निहारना ,
तुम रह कर भी नहीं रहते मगर बरसते जरूर हों ..
झुरमुट की ओट से अक्सर छिपकर देखते हों...
नयन भर भर नीर बुझाते थे आग को ,
आ जाते हों कुरदने चिंगारी दबी जिसमे ,उसी राख को ,
क्रांति का शौक हुआ चरागों के संग ,
माचिस का जलाना और जलना संग संग ...
टूटो तुम..रजा नहीं हमारी ,वर्ना तोडकर बहा दिया होता ,
रश्क हुआ क्यूँ खुद के नसीब से ,
ए जिंदगी खुशनसीबी समझ कि सलामती रहे ...
वाह दौर कैसा ..चमक से खुद की आंखे भी बंद कर ली ...
तमाशा देखते हों ? तमाशाई भी बना दिया
वाह रे !मरघट पे पहुंच और चिता भी जला ....
सत्य को मार डाला, दलाली भी दी राह ए मंजिल की जानिब ...
चुप बिखरते रहे उसपे भी हंगामा बरपा रहे हों ...
सभ्यता को ही सभ्यताई तहजीब सिखा रहे हों ..वाह री दुनिया
धूप में सुखा मन,..खौफ में मत जी ..-- विजयलक्ष्मी

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