Monday, 30 January 2017

बसंत की पतंग ,,

बसंत की पतंग ,,
लिए उड़ने की चाह 
वो भी छत पर खड़ा 
था मुंडेर से टिका 
निहार रहा था ,,
पतंग
उडती थी नील गगन
मंथर मंथर ,,
कभी गुलीचा मारती ..
कभी इतराकर उपर उड़ जाती ..
जैसे जिन्दगी उडी चली जा रही थी
दूर इस दुनियावी दस्तूर से
अनंत को पाने की चाह में
अंतर्मन को छूने की राह में
जैसे छा जाना चाहती थी
इस मन के अनंत आकाश में
हो पवन वेग पर सवार
यूँ डोर संग करती इसरार
ज्यूँ उँगलियों से पाकर इशारा
मापना चाहती हो आकाश पूरा
जैसे एक दिन में जीना चाहती है
पूरी जिन्दगी ,,
या ..
पूरी सदी
या ..पूरा युग ,,
या पूरा ही कल्प ,,
जन्मों की गिनती क्या करनी 

डर लगता था टूट गिरी 
अटकी लटकी ..
गिरती फटती 
बस एकांत गिरी जाकर 
न लूट सका ..
न छूट सका 
मन पर पैबंद लगा बैठी
बस ,,
कुछ और नहीं ,,
प्रेम प्रीत की डोर बंधी जैसे
जीवन पूरा जी उठी ऐसे
क्या बसंत की पतंग सी ... ||
----- विजयलक्ष्मी

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