" उजली सी रात
बिखरी रातरानी सी महक
मेहनतकशी पसीने को महकाती है
इत्रफुलेलों को नहीं ,,
भावना की मय लहू में बहती है
चूल्हे की रोटी महक गहरती है नथुनों में
और भूख जलाती है पेट में अलाव सी
पहली बरसात भली सी देती है सौंधी सी पहचान
खेत से आती गर्म हवा ,,पसीने को छू ,,
जैसे बहकती है शराबी सी ,,
वो नीम का पेड़ याद है न ...
जिसपर झूलते थे झुला भरी धूप
और वो पुराना बरगद ... माँ पूजती थी जिसे लपेटकर मौली कच्चे सूत की
होली की आंच से बचाकर भेजी गयी बहुए ,,
बासंती गुंजार पंछी की और कुहुकना कोयल का
वो तितली ...थिरकती सी जा बैठती फूलों पर
कुछ पत्ते पीले हुए से झूलते थे कांपते से
जैसे इन्तजार है ..
बस गुजरने का ..कैसे उन्हें छूकर कडकती आवाज सुनते थे
खेत में फूलती सरसों जैसे अंगडाई लेती है धरा
एक भीनी सी महक बहका रही है ,,
उम्र के इस पडाव पर जहां सूरज ढल रहा है जिन्दगी का
और मन चंचल हुआ जाता है बच्चे सा ..
जिन्दगी के वो लम्हे परिदृश्य से गुजरते है ..
और खुली आँखों में घुमन्तु हुआ समय जैसे ठहर गया है आज "-- विजयलक्ष्मी
बिखरी रातरानी सी महक
मेहनतकशी पसीने को महकाती है
इत्रफुलेलों को नहीं ,,
भावना की मय लहू में बहती है
चूल्हे की रोटी महक गहरती है नथुनों में
और भूख जलाती है पेट में अलाव सी
पहली बरसात भली सी देती है सौंधी सी पहचान
खेत से आती गर्म हवा ,,पसीने को छू ,,
जैसे बहकती है शराबी सी ,,
वो नीम का पेड़ याद है न ...
जिसपर झूलते थे झुला भरी धूप
और वो पुराना बरगद ... माँ पूजती थी जिसे लपेटकर मौली कच्चे सूत की
होली की आंच से बचाकर भेजी गयी बहुए ,,
बासंती गुंजार पंछी की और कुहुकना कोयल का
वो तितली ...थिरकती सी जा बैठती फूलों पर
कुछ पत्ते पीले हुए से झूलते थे कांपते से
जैसे इन्तजार है ..
बस गुजरने का ..कैसे उन्हें छूकर कडकती आवाज सुनते थे
खेत में फूलती सरसों जैसे अंगडाई लेती है धरा
एक भीनी सी महक बहका रही है ,,
उम्र के इस पडाव पर जहां सूरज ढल रहा है जिन्दगी का
और मन चंचल हुआ जाता है बच्चे सा ..
जिन्दगी के वो लम्हे परिदृश्य से गुजरते है ..
और खुली आँखों में घुमन्तु हुआ समय जैसे ठहर गया है आज "-- विजयलक्ष्मी
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