Monday, 30 January 2017

क्यूँ न हलफनामा लिख दूं ,,

अकेले रहें ,,
जब 
मंजूर होने लगा है तुम्हे 
और
पेट तो भर लेता है पशु भी ...
मान को मान न मिले
क्या जाना उस घर ...
सच कहना ..
सब झूठ लगता है ....
इंतजार करता हूँ ,,
देखता हूँ जाते हुए दूर से
महकता हूँ महक से ..
भरा रहता हूँ अहसास से
भूलता नहीं याद से ,,
गिनता हूँ साँसों में
अजीब लगता है ..
यूँ दूरियों का महसूस होना
जानबूझकर जवाब न देना
देखकर अनजान बनना
टिकी हुई नजर को उखाड़ते हुए
जैसे अनजान गुजरते हो
अनछुए से
यूँभी
टूटी हुई सडक के किनारे
बिखरे हुए ही होते हैं
खुद में
अब मैं भी ...इन
गुजरते लम्हों में गुजारिश भी क्या करून तुमसे
सोचती हूँ
क्यूँ न हलफनामा लिख दूं ,,
कुछ तलाक़ सा  ? ------- विजयलक्ष्मी

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