फखत इम्तेहाँ हिस्से में हमारे क्यूँ हैं
मेरे औरत होने पर सवाल ठहरे क्यूँ है ||
मुझे मुगालता नहीं मेरी आजाद साँस का
फिर भी तुम्हारे जख्म हर हुए गहरे क्यूँ हैं ||
सच कहना मुझे औरत होने में शर्म नहीं
कभी बूरखा कभी पर्दा मुझपे इतने पहरे क्यूँ है ||
छोड़ मुझे मेरे हाल पर,न बोझ समझ ढो
फिर मेरी वजह से आँखों में आंसू ठहरे क्यूँ हैं ||
नियामत समझा था साथ तुम्हारा मैंने
कयामत की तरह दर्द हुए गहरे क्यूँ हैं ||
वो खौफ कौन है जो मुकम्मल नहीं होने देता
भला इन काले सायों के रंग इतने गहते क्यूँ हैं || ---- विजयलक्ष्मी
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