Saturday, 14 January 2017

" दुनिया है या पिंजरा ,,,समझ से परे है ...."

" दुनिया है या पिंजरा 
समझ से परे है ..
जहां सभ्य चुप है 
बुद्धिजीवी मौन तमाशबीन बने हैं 
असभ्य किसे कहूं ....
यही दुनिया का दस्तूर ..
यही सुना ,,
आजाद है स्वतंत्र नहीं ,,
न्याय है बिका हुआ सा
कहीं कायदा नहीं ..
कहीं मजमून अँधा है
कही टुटा हुआ कंधा है
कहीं पर सोच ढीली है
कहीं जिन्दगी गीली है
कोई कुम्हार अधूरा है
कहीं अहसास अधूरा है
कहीं छूटे हुए किस्से
कहीं बिखरे हुए हिस्से
कहीं लालच के फंदे हैं
कहीं मासूम बंदे हैं
झुग्गी में तो तन से अधनंगे है
महलों में तो मन के गंदे हैं
सुनते दुनियावी धंदे हैं
सच क्या है ..
कौन समझा ..कौन समझा पाया
कोई मेहनतकश भी भूखा है
कहीं देह ने पाया है
नशा दौलत का सर चढ़ आया है
जिसमे इन्सान से इन्सान भुलाया है
ख़ामोशी अख्तियार कर लूं
मगर कैसे स्वीकार कर लूं
सत्य को मौत को ही तमाशा बनाया है
यथार्थ चीख रहा है
वर्तमान अँधेरे में लग रहा है
भविष्य लापता सा है
रपट लिखने वाले लापता हैं
वो सैनिक रोटी को रोता है
वो महाराणा घास की रोटी खाता है
सब स्वार्थ टकरा रहे हैं
ये हम कहाँ जा रहे हैं ,,
शायद इसीलिए इसे कलयुग बता रहे हैं
इसीलिए कहती हूँ ...
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ?
सूरज थककर डूब गया ,,
जाने कब भोर हो ...इंतजार है अनवरत
तबतक तलाश जारी है ..
दुनिया है या पिंजरा
समझ से परे है ..
जहां सभ्य चुप है
बुद्धिजीवी मौन तमाशबीन बने हैं
असभ्य किसे कहूं ....
यही दुनिया का दस्तूर ..
यही सुना ,,
आजाद है स्वतंत्र नहीं ,,
न्याय है बिका हुआ सा "
------------ विजयलक्ष्मी

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