Tuesday, 10 January 2017

मेरी तरह ..............||

मेरी तरह ..............||
चाँद कल रात भी चमक रहा था ,,
मैंने नहीं देखा 
बादलों की ओट में तारों संग खेल रहा था 
झुक-झुक जाता था पुष्पित वृक्ष की टहनियों पर 
शायद उन्हें सितारा समझ रहा था ,,
तारे चमचमाते हुए आँख मिचौली करते
कभी बदलो की गोद में छिप जाते थे ,,
पकड़े जाने पर रोते हुए से भीग जाते थे बरसात के आने पर
बहुत शोर था छत पर ,,
मौन ...देख रहा था झांककर इधर उधर ,,
मगर ख़ामोशी बराबर पीछा कर रही थी
आखिर एक सितारा गिर पड़ा टुकड़े टुकड़े होकर
उस निहारिका को देख नयन समन्दर हो गया
खारापन भर गया लबालब ,,
स्वच्छ मीठी नदियों में भी खारापन था ..
उड़ेल दिया उस समन्दर में ... और खो गयी
समेट लेता है थकन का खारापन खुद में शांत रहकर
कभी उलाहना नहीं देता ,,
शायद इसीलिए ...
नदियाँ कभी खुद को नहीं ढूंढती
मेरी तरह ..............||
----------- विजयलक्ष्मी


मैं खुद में खुद को ही ढूंढ रही हूँ बरसों से ,,
"बदल गये हो "बोले देख रहे जो परसों से
 ------ विजयलक्ष्मी

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