Tuesday, 17 January 2017

" कस्तूरी "


कस्तूरी ..
हाँ ,तुम हिरन परी जो ठहरी
यद्यपि ...मेरे पंख
कट चुके थे
सालो पहले सामाजिक अनुष्ठान में
एक दो नहीं सैकड़ो के सामने
गवाह हुए
गाजे बाजे ...
किसी ने नहीं पूछा ...उसके बाद ...
" कैसी हो "
बस माँ ने निहारा था प्रश्न भरी निगाहों से
उनकी आँखों में अजीब सा सुकून देख चुप थी मैं भी
मुस्कुराई हौले से ...
और .......कह दिया खुश हूँ !
ख़ुशी ..किसे कहते हैं ?....कोई बतायेगा ये सच
आत्मा कब और कैसे खिलखिलाती है
नहीं मालूम था ..
हाँ ...बीमार माँ के चेहरे का सुकून ,,
याद था ...
याद था पकते बालों में पिता का मुस्कुराना
आँखों के मोती ...
जो पोंछ लिए थे मुहं घुमाकर मेरी और से
बाबा की जिन्दगी जैसे बिदाई के इन्तजार में थी
और रूठ गयी सबसे
बेटी की बिदाई ..
सुकून है या नई चिंता ?
कल की नई फ़िक्र
आँखों में प्रश्न दिल में समाज का डर
कोई नहीं चाहता ...
विदा हुई बेटी लौटकर कहे मैं खुश नहीं हूँ
जानती है हर बेटी इस सच की
जानती है पिता के कंधो का वजन
उसपर चढ़ा अपना बोझ
विदा ...मतलब ..विदा ही होता है बस
और कुछ नहीं ..
जिस देहलीज चढ़ी ..
अर्थी पर चौखट लांघे ..
कोई कुछ भी बांचे कोई कुछ भी बोले
सप्तपदी को मापों ,,
हर बंधन स्वीकार ,,
हर मंत्रोच्चार ...चाहे छलनी सीना हो
या चाक हो मन भीतर
आंसू न छलके
मन कितना भी बिलखे
दहेज के ताने या ...काम का बोझ
खूंटे से बंधी .........||
ये कस्तुरी तब कहाँ थी
मैं किसी के लिए इनाम नहीं थी
नसीब मेरा सराहा गया पढ़ा लिखा दूल्हा मिला था आखिर ..
लेकिन .......
कमियां थी मुझमे
कभी सर्वगुण सम्पन्न न बनना था मुझे
न ही बन पाई मैं
मैं नारी
मैं सीता भी थी ..और उर्मिला भी
मांडवी भी मैं ही थी और द्रोपदी भी
कैकेई और कौशल्या ही नहीं ...
मैं मेघनाथ की महतारी
नहीं इस सम्मान की अधिकारी
समाज की ऊँगली उठती है मेरी और ..
मुझे यही सच मालूम है आज भी
और तुम्हे ...मालूम है कस्तुरी की महक
मुझे नहीं मालूम ...कैसी होती है
मैं कैसे जानूंगी ये सच ?
जाने कब समझूंगी ये सच ?..या
बस यूँही सोचूंगी ये सच..
कहीं झूठ तो नहीं ये सच ?
------- विजयलक्ष्मी

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