" इतनी तो बंजर न थी दिल की जमी अपने ... ये अकाल पड़ा क्यूँ ,
अन्नदाता की हुकुमत, बीज औ पानी ,कर्ज का जंजाल पड़ा क्यूँ
मुहब्बत औ खुलूस भरी खूबसूरत वादियाँ थी वतन की हमारे
ये रंज औ गम का बादल बरसा नहीं ..इन्सान बेहाल पड़ा क्यूँ
ये सियासी परचम दीखते वतन के रंग में रंगे .. वतन बीमार पड़ा क्यूँ
ये कैसी हुकुमत है आज मेरे वतन में ...देशभक्त के सर आतंकी जंजाल पड़ा क्यूँ
हर कोई खुद को वतनपरस्त बताकर गुनगुना रहा है ,,देश बदहाल पड़ा क्यूँ
खनक कर गूंजता रहा संगीत हवाओं में जिन गलियों में.. सन्नाटा बेख्याल पड़ा क्यूँ
संस्कृति संस्कार जहाँ रगों में बहते रहे ..मान का अपमान खुले हाल पड़ा क्यूँ
पूजते इन्सान क्या नारी ..क्या पशु ...कत्लखाना बेमिसाल खड़ा क्यूँ
राजशाही ठाठ बे-इमानो के हुए ..मेहनतकश ईमान पे चलने वाला ही तंगहाल खड़ा क्यूँ
पूजते हैं ऐशगाह चरित्रहीन थे वही चरित्रशुदा हुए .. घर भगवान के ताला पड़ा क्यूँ
सोचकर देखना कोई खता हुयी हो कहीं ...बिन बात सवाल खड़ा क्यूँ ?"--- विजयलक्ष्मी
अन्नदाता की हुकुमत, बीज औ पानी ,कर्ज का जंजाल पड़ा क्यूँ
मुहब्बत औ खुलूस भरी खूबसूरत वादियाँ थी वतन की हमारे
ये रंज औ गम का बादल बरसा नहीं ..इन्सान बेहाल पड़ा क्यूँ
ये सियासी परचम दीखते वतन के रंग में रंगे .. वतन बीमार पड़ा क्यूँ
ये कैसी हुकुमत है आज मेरे वतन में ...देशभक्त के सर आतंकी जंजाल पड़ा क्यूँ
हर कोई खुद को वतनपरस्त बताकर गुनगुना रहा है ,,देश बदहाल पड़ा क्यूँ
खनक कर गूंजता रहा संगीत हवाओं में जिन गलियों में.. सन्नाटा बेख्याल पड़ा क्यूँ
संस्कृति संस्कार जहाँ रगों में बहते रहे ..मान का अपमान खुले हाल पड़ा क्यूँ
पूजते इन्सान क्या नारी ..क्या पशु ...कत्लखाना बेमिसाल खड़ा क्यूँ
राजशाही ठाठ बे-इमानो के हुए ..मेहनतकश ईमान पे चलने वाला ही तंगहाल खड़ा क्यूँ
पूजते हैं ऐशगाह चरित्रहीन थे वही चरित्रशुदा हुए .. घर भगवान के ताला पड़ा क्यूँ
सोचकर देखना कोई खता हुयी हो कहीं ...बिन बात सवाल खड़ा क्यूँ ?"--- विजयलक्ष्मी
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