Monday, 10 March 2014

" लहू उछाल चिरैया रंगती आसमान को."

कोई तलब करे है परवाज उड़ान को ,

पिंजरे में बुलबुल देखती बस मचान को,


पंखो को नोचकर सैयाद खुश हुआ 


लहू उछाल चिरैया रंगती आसमान को.- विजयलक्ष्मी






कुछ जिन्दा हुए से पल मरते हुए अहसास ,

तमाम शाम ओ गम को भरते हुए उजास ,


भूलता नहीं कोई और भूलना भी भूल जाये..


यादों के परचम क्यूँ लहराए आम औ ख़ास .- विजयलक्ष्मी






लालच के वशीभूत माँ को नोचते मिले ,

गिरे जमीर के बेटे माँ को बेचते मिले 


इस चमन में अब गुल नहीं महकता 


बसंत में गुलदान कागज के गुल सजाते मिले 

महक खोयी यथार्थ की जमीं दिखावे में 


चली राहे अनजान मंजिल के बहकावे में 


रौनक ए अहसास वक्ती सरोकार रह गया 


लिए मन में मेल मगर चेहरे को छलकाते मिले .- विजयलक्ष्मी 

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