जानती हूँ समाज बदल गया यही आवाज उठेगी ..किन्तु अंतर्मन में झांककर सच का आइना सामने रखकर बोलना ..क्या वाकई में हम और हमारा समाज इतना बदल गया है ...या अभी भी कोई कमी है ..
एक सत्य अटल सा ..
फिर क्यूँ झुठला जाती है उसे
औरत की मृत्यु ..
फिर भी दिखती है जिन्दा
कितनी बार मरी या मारी गयी
जन्म से से पहले से शुरू हुयी कवायद
सम्भावना जगत में जीव के आने की..
पहला डर--लडकी तो नहीं ..मर गयी वो उसी पल ..इसी खौफ से
जाँच में पाया गया ..लडकी ही तो है ..
उफ़ ..लडकी ,,नहीं चाहिए ..फिर मरी अहसास से
उसके बाद की कवायद ..
टुकड़ों में काट काटकर
एक औरतनुमा जीवनदायिनी ने मुक्ति देदी ...
एक पुरुष के जिम्मेदारी से भागने पर ..
और वो वही मर गयी ...समर्थ पिता की असमर्थ बेटी जो ठहरी .
गर यहाँ बच गयी किस्मत की मारी ..मरेगी जन्म के समय ..
खबर में उतरा चेहरा लिए जब सिस्टर आई और बोली ..
लक्ष्मी आई है ...और पिता थूक भी सटक नहीं सकेंगे सदमे में ..
वो मर जाएगी समझ आने से पहले ...क्या हुआ ?
फिर मरेगी अक्सर भूख से रोते रोते ...माँ को जब फुर्सत न होगी काम से
बिलख बिलखकर रोते रोते कितनी बार साँस टूटती टूटती जुड़ेगी मेरी ..
या हो सकता है धतुरा ही चटा दिया जाये आँखे के ढूध में मिलाकर ..और मुक्त ,
न कर पाई कोई दाई या चाचा चाची कोई ये काम ..साँस न टूटी गर ..
जिन्दा से शरीर में होगा फिर मरण जब चलेगी पैरो पर और दौड़ेगी बाहर को
या आगमन होगा नये शिशु का भाई बनकर ..
उसकी खुशियों का अम्बार मेरी मुस्कुराहट तो छीन लेगा ..
वंशबेल बढ़ी चिराग है घर का और मैं पराई ..पैदा होने पर हुई या पहले से थी..
आजतक भी समझ नहीं पाई
ख्वाब छिनने थे छिनने लगे ..काम के नाम पर
औरत जात थी न मैं
हर ख्वाब के साथ मरती और फिर जिन्दा हो जाती अगला ख्वाब आँखों में बसाए
घर के काम से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई ..
भाई डॉक्टर या इंजीनियर जो भी बनना चाहे ..
मुझे कॉलेज की पढ़ाई भी प्राइवेट ही कराई ..
अब मैं भूल रही थी मरना अपना जिन्दगी के हर कदम पर ..
हर कांटे का दंश जैसे जीवन सिखलाता चलता था
जीवन की निराशा में भी मैंने हंसना सिख लिया था ..
पराई थी पराई कर दी गयी ..
ख्वाब पिता का ..इज्जत खानदान की कांधे धर दी गयी
और ..फिर नया सा ख्वाब सजाया पलकों पर ..
पर गरीबी और औरत होने ने पीछा नहीं छोड़ा
पराई आँखों ने दहलीज के भीतर भी देह को नहीं छोड़ा
लेकिन मैंने भी फिर से अगले ख्वाब को सजाना नहीं छोड़ा ..
कभी देह से कभी नेह से समाज ने बलात प्रहार किये
जख्म मिले जितने उतनी मेहनत और सफाई से मैंने सिये
ठान लिया मन में किसी भी जख्म को पैबंद सा नहीं लगने दूंगी
फिर एक नन्हीं सी परी ...उसे नहीं मरने दूंगी ..किसी लम्हे को दुबारा नहीं गुजरने दूंगी
लेकिन क्या एसा ही हो पाया ..क्या घर समाज पुरुष इतने आजतलक बदल पाया
हर मुमकिन कोशिश फिर भी बच्चों की हंसी में अपना खोया बचपन जी लेती हूँ
टूटते हुए ख्वाब के जख्म फिर फिर सी लेती हूँ ..
औरत हूँ न हर मना के बाद भी उड़ान हौसले की उड़ लेती हूँ ,,
मरती हूँ भीतर से या टूटकर जी लेती हूँ ,,
कैसा भी हो जहर अब तो बिन आवाज बेखटके पी लेती हूँ
कोशिश भी करती हूँ लड़ने की ..
कदम दर कदम मंजिल पकड़ने की
कहीं कुछ तो है ...बार बार मरती हूँ ...पर जिन्दगी जी लेती हूँ
औरत हूँ न ...पंख धरे गिरवी जैसे चिरैया के ..
लेकिन उड़ान हौसले की रूह से आज भी उस लेती हूँ
मौत भी हार रही है हरा हराकर मुझको ,,
मैं जो भी जैसी भी ..किसी से नहीं लड़ सकती गर खुद से तो अब लड़ लेती हूँ
मैं औरत हूँ ..इल्जाम और चुप्पी का नाता बहुत पुराना है
ये समाज एसा ही है हर युग में इसको एसा ही आना है
मैं हूँ आधी दुनिया कहने को ..
फिर भी तेरी आधी दुनिया को पूरा कह देती हूँ
मैं औरत हूँ ...हौसले का दूसरा नाम हूँ ..
तुझको जिन्दा रखकर भी जिन्दा रह लेती हूँ .--- विजयलक्ष्मी
एक सत्य अटल सा ..
फिर क्यूँ झुठला जाती है उसे
औरत की मृत्यु ..
फिर भी दिखती है जिन्दा
कितनी बार मरी या मारी गयी
जन्म से से पहले से शुरू हुयी कवायद
सम्भावना जगत में जीव के आने की..
पहला डर--लडकी तो नहीं ..मर गयी वो उसी पल ..इसी खौफ से
जाँच में पाया गया ..लडकी ही तो है ..
उफ़ ..लडकी ,,नहीं चाहिए ..फिर मरी अहसास से
उसके बाद की कवायद ..
टुकड़ों में काट काटकर
एक औरतनुमा जीवनदायिनी ने मुक्ति देदी ...
एक पुरुष के जिम्मेदारी से भागने पर ..
और वो वही मर गयी ...समर्थ पिता की असमर्थ बेटी जो ठहरी .
गर यहाँ बच गयी किस्मत की मारी ..मरेगी जन्म के समय ..
खबर में उतरा चेहरा लिए जब सिस्टर आई और बोली ..
लक्ष्मी आई है ...और पिता थूक भी सटक नहीं सकेंगे सदमे में ..
वो मर जाएगी समझ आने से पहले ...क्या हुआ ?
फिर मरेगी अक्सर भूख से रोते रोते ...माँ को जब फुर्सत न होगी काम से
बिलख बिलखकर रोते रोते कितनी बार साँस टूटती टूटती जुड़ेगी मेरी ..
या हो सकता है धतुरा ही चटा दिया जाये आँखे के ढूध में मिलाकर ..और मुक्त ,
न कर पाई कोई दाई या चाचा चाची कोई ये काम ..साँस न टूटी गर ..
जिन्दा से शरीर में होगा फिर मरण जब चलेगी पैरो पर और दौड़ेगी बाहर को
या आगमन होगा नये शिशु का भाई बनकर ..
उसकी खुशियों का अम्बार मेरी मुस्कुराहट तो छीन लेगा ..
वंशबेल बढ़ी चिराग है घर का और मैं पराई ..पैदा होने पर हुई या पहले से थी..
आजतक भी समझ नहीं पाई
ख्वाब छिनने थे छिनने लगे ..काम के नाम पर
औरत जात थी न मैं
हर ख्वाब के साथ मरती और फिर जिन्दा हो जाती अगला ख्वाब आँखों में बसाए
घर के काम से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई ..
भाई डॉक्टर या इंजीनियर जो भी बनना चाहे ..
मुझे कॉलेज की पढ़ाई भी प्राइवेट ही कराई ..
अब मैं भूल रही थी मरना अपना जिन्दगी के हर कदम पर ..
हर कांटे का दंश जैसे जीवन सिखलाता चलता था
जीवन की निराशा में भी मैंने हंसना सिख लिया था ..
पराई थी पराई कर दी गयी ..
ख्वाब पिता का ..इज्जत खानदान की कांधे धर दी गयी
और ..फिर नया सा ख्वाब सजाया पलकों पर ..
पर गरीबी और औरत होने ने पीछा नहीं छोड़ा
पराई आँखों ने दहलीज के भीतर भी देह को नहीं छोड़ा
लेकिन मैंने भी फिर से अगले ख्वाब को सजाना नहीं छोड़ा ..
कभी देह से कभी नेह से समाज ने बलात प्रहार किये
जख्म मिले जितने उतनी मेहनत और सफाई से मैंने सिये
ठान लिया मन में किसी भी जख्म को पैबंद सा नहीं लगने दूंगी
फिर एक नन्हीं सी परी ...उसे नहीं मरने दूंगी ..किसी लम्हे को दुबारा नहीं गुजरने दूंगी
लेकिन क्या एसा ही हो पाया ..क्या घर समाज पुरुष इतने आजतलक बदल पाया
हर मुमकिन कोशिश फिर भी बच्चों की हंसी में अपना खोया बचपन जी लेती हूँ
टूटते हुए ख्वाब के जख्म फिर फिर सी लेती हूँ ..
औरत हूँ न हर मना के बाद भी उड़ान हौसले की उड़ लेती हूँ ,,
मरती हूँ भीतर से या टूटकर जी लेती हूँ ,,
कैसा भी हो जहर अब तो बिन आवाज बेखटके पी लेती हूँ
कोशिश भी करती हूँ लड़ने की ..
कदम दर कदम मंजिल पकड़ने की
कहीं कुछ तो है ...बार बार मरती हूँ ...पर जिन्दगी जी लेती हूँ
औरत हूँ न ...पंख धरे गिरवी जैसे चिरैया के ..
लेकिन उड़ान हौसले की रूह से आज भी उस लेती हूँ
मौत भी हार रही है हरा हराकर मुझको ,,
मैं जो भी जैसी भी ..किसी से नहीं लड़ सकती गर खुद से तो अब लड़ लेती हूँ
मैं औरत हूँ ..इल्जाम और चुप्पी का नाता बहुत पुराना है
ये समाज एसा ही है हर युग में इसको एसा ही आना है
मैं हूँ आधी दुनिया कहने को ..
फिर भी तेरी आधी दुनिया को पूरा कह देती हूँ
मैं औरत हूँ ...हौसले का दूसरा नाम हूँ ..
तुझको जिन्दा रखकर भी जिन्दा रह लेती हूँ .--- विजयलक्ष्मी
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