"काश समझ लेता कोई मन, खबर के बाद क्या होता है हश्र ,
लिखने वाला लिख कर खो गया ...शब्दों में उडाकर ,
तैरते है वही शब्द हवाओं में पल पल हवा के संग ,
लिए दर्द को संग वारदात का कैसे जीते है उड़े से रंग ,
कुछ पल जब चिपकते है जीवनभर को संग करके बेरंग ,बेबसी के संग ,,
कैसे समझे कोई ...पल पल मरते पल को पलको पर ठहर जाता है जो ,
जख्म तन के भर जाते है पर मन के जख्मों का क्या ,
वारदात ....काश ...!महज एक वारदात होती तो अच्छा था ,
छीन लिया हर रंग ,जीने का ढंग ,करके बेरंग हुआ बदरंग ,
बहुत बेजा हरकत उसपर माफीनामा ,,,सरकार का रंग दिखाना ,
सजा को माफ़ कर .....उनकी राह को पुख्ता कर जाना ,
अनदेखा कर दर्द को सरेबाजार जीवन को नर्क बना जाना ,
तन के साथ मन को जीवन से जीते जी जुदा कर जाना ..
हठधर्मी बिन कारण ही बलात बलात्कार से बेहतर है मर जाना ..
वो छू गए तन को दुनिया तार तार करती है मन को ,
फिर "वो " हर रोज हर पल सिर्फ मरती है ..जीते जीते जीवन को ".- विजयलक्ष्मी
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