Monday, 17 December 2012

देह मर चुकी दफ्न करना है बाकी....

"खामोश दरख्तों की आवाज सुनी कभी ,
खला को चीरकर निकलती है जब कभी ,
अहसास करना शब्द हल्के लगते है कभी कभी अहसास के ,
मेरी मौत तो निश्चित हों चुकी ..
पूजा का एक दीप जलता है तारीकियों का नाम लेकर ,
हर संगीत मौन में धर दिया तुम्हारे शब्दों ने ,
तुम ढांढस बंधा दो बहुत है बाकी ,
आँसू सूख जाते है एक दिन ,
लकीरें हाथ की कैसे बदल डाले ,,
बता कैसे हम काफ़िर हों गए ,,
बेवफाई तो नाम लग चुकी हमारे ..
शाहदत पर नाम लिखा है उँगलियों ने जिस रोज से ..
तूफ़ान का मंजर है ..हमे इजाजत नहीं अब घर से निकलने की ..
हम उस ऊँगली को देखते है क्यूँकर हुआ ये कत्ल हमसे ,,
समझ से परे है अब ..
खंजर खामोश सा हों गया क्यूँ ..
इत्मीनान भी नहीं है ..वक्त भी वक्त देने को तैयार नहीं है ...
विदा करनी है बेटी अभी घर से ..
कैसे मुख मोड लूँ फर्ज से ,
वक्त कम है बहुत ..
यूँ जिंदगी में गम है बहुत ,
मगर खुश हूँ ....मैं बहुत ,
देह मर चुकी है दफ्न करना है बाकी ..
रूह भी चीख कर चुप सी हों गयी .
बाकी तुम सुनाओ अपनी कहानी ,
भागती दौड़ती जिंदगी की रवानी ,,
- विजयलक्ष्मी

2 comments:

  1. वाह वाह बहुत ही सुन्दर अभिब्यक्ति है !

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर.....

    ReplyDelete