प्यार शब्द नहीं है ,न ही अहसास है दिखावे को ,
जिंदगी का वो अध्याय भी नहीं जिसे लिखा हों भूल जाने को ,
देह की याचना जो करे मूर्ख कीचड में फंसा है जानकर भी अनजान है बनता ,
पूजता ही प्रेम को कोई इश अपना बना ,
श्याम रंग में रंगा मन के धवल से रूप को ,
मोह मोहन का लगा ,नहीं तन के स्वरूप को ,
जीव तर जाता वहीं जो पूजता ब्रह्म बना स्वरूप को ,
नेह के मीह में भीगता पल पल यूँही ,
वासना से दूर जिंदगी भी है वही ,
छोडकर नेह जी रहा है नेह डोर संग ....
रंग प्रेम को आत्मा में परमात्मा संग ,
देह मिलन दूर आत्मा के मिलन की चाह लिए ....
अक्षत वही ,सशक्त वही ,खोया नहीं कभी ..
प्रेम के अखंड स्वरूप को पाया वही ..
आराध्या बनी राधा तभी उसी कृष्ण की ,
भेद तब फिर है कहाँ ...
कौन राधा कौन कृष्ण कहो यहाँ ...
प्रेमसिक्त वात्सल्य बसा हों नयनपट के तले ,
स्वरूप एक दोनों के ही मिले ,
अश्रुपूरित नयन भाव को लिए ...
नदिया से मिल तालाब भी समन्दर हों लिए ..
डूबकर भी डूबता नहीं जीता है संग वही जिंदगी को लिए ...विजयलक्ष्मी
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