नेट करती है ..वो भी इतनी देर ,
कितनों से यारी गांठी ,,कितनों को लगाई टेर ,
ये बतला है कौन जिसे तू मिलने जाती है ..
थोड़ी थोड़ी देर में कम्पुटर पर जाती है ..
ऐसा क्या शौंक हुआ ..जो कलम चलती जाती है ..
ये कैसे सम्भव पुरुषों को पीछे छोडती जाती है ..
तू औरत है औरत ही रहना ..कैसे बराबर पुरुषों के आती है ,
कुलक्षिणी होगी या नैन मटक्का करती होगी ,,
कोई तो होगी बात ,, जगती है सारी रात ..
जाने कब सोती है ..कब खाती है कब गाती रोती है
तू औरत है तुझपे इल्ज़ाम बहुत है संगीन ...
बतला किसके संग करती है रातें रंगीन ..
जाने कितने है सवाल उठते रहते जेहन में ..
पर तू है कि मानती नहीं औरत बहुत कपटी है तू ....
कितनी भी शांत रह पर भीतर से अशांत है क्यूँ ..
ये दुनिया ऐसी ही है ..कोई घर नहीं बचा ...
दुनिया की नजरे तुझ पर तेरे खुद से ज्यादा है ..
क्या लिखती है क्यूँ लिखती किसपे लिखती है ...
जाने अभी और क्या लिखने का इरादा है ..
तू खुद को अफलातून समझ बैठी
औरत है औरत ही रहना देख जरा कैसे है ऐंठी ..
अरे नहीं हमदर्दी पूरी है तुमसे ..पर सोच जरा दुनिया कैसी है ..
जाने कैसी है दुनिया ..
सब खुद में सब अच्छे है फिर भी दुनिया बहुत खराब ..
अच्छों के मिलने से दुनिया खराब कैसे हुयी भला ..
सवाल जीवंत है और अभी भी अनसुलझा ..!!-- विजयलक्ष्मी
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