Tuesday, 12 March 2013

उपजाऊपन सारा बंजर में बदल गया ...

मेरे देश को शहर और गांवों ने छाँट दिया ...
आँगन को नफरत की दीवारों ने बाँट दिया 
मेरे गांव की गलियों को मजहबी दीवारों ने बाँध दिया है ,
रंग ए लहू एक है मगर सिरकापरस्तों ने बाँट दिया ,
रंग लाल बहकर बिखरा है गली गली चौराहों पर ,
लिख दिया हिंदू और मुसलमान,ईसाई और पारसी के नाम पर ,
धर्म को नंगई के लिखा नाम और ली लम्बी डकार ..
कभी सरकार तो कभी वोटो के नाम पर ..
कभी मंदिर मस्जिद तो कभी इंसानियत की चोटों के नाम पर ,
देखते नहीं अँधेरे हुए है कितने ..
आम आदमी दुःख झेले हुए है कितने ...
मिलती नहीं है रोटी जिन्हें ,दो जून की रोटी से वोट खरीद ली
बची हुयी बाकी जिंदगी के नाम पर बेटी खरीद ली ..
जब चाह जिसने चाह जैसे चाह नोचते ही रहे ..
बस दिखावे की ही खातिर आँसू पोंछते रहे ..
हर शहर का गंदगी से बुरा हाल है ,
सो रहा मगर वहाँ नगरपालिका का लाल है ..
देखे कौन जाकर खुद निगल गए पैसा ..
करे कौन शिकायत ...है कौन भला माई का लाल ऐसा ..
पोलिथिन के नाम पर हजारों कानून बन चुके ..
बंद पड़ी नालियों की शोभा हजार जगह बन चुके...
बंद जुबां है बंद ही रहेगी ...हिन्दुस्तान की मिट्टी का रंग क्या रंग ढल गया ..
उपजाऊपन सारा बंजर में बदल गया ...
दुसरे के खेत से जलन हों रही है ...मेरे देश की फसल खेत में जल रही है ..
दाम के नाम बाजार गरम है ..हालत मगर यहाँ सबकी नरम है ,
ब्रांड बन चुका जिंदगी का फलसफा ..
कैसे होंगी इस देश की गंदगी सफा .
- विजयलक्ष्मी

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