"चलो , तय कर दिया खुद ही हर सपना था यूँही ,
हमको माप रहे थे या खुद को जाँच रहे थे ..
या बस खेल रहे थे खुद से खुद में यूँही ,
ख्वाबों को पाकर खोना या कह दूँ ....
ख्वाबों में खो जाना ..कुछ दरकार किसे थी ..
माटी को माटी से ललचाया ..पारस सा रंग दिखाया ..फिर
फिर उसपर माटी का पाता मारा ..फिर ..जम कर निकिल लगाया ..
पीतल को कभी चांदी कभी सोना सा बनाया ..
और थक गया मन भी कदमों का चलना दूभर ..
कह गया आज तुम हों ही ऊसर ..
बीज कहाँ तक बोऊँगा..
चल छोड़ हुआ है वक्त बहुत ...किसी और जमीं पे पेड़ लगाऊंगा ..
कब रोका जा चला जा ..पर एक काम करके जाना ...
जितना जल बरसाया और खोदे गड्ढे गहरे ..
उनको भर के माटी से ही जल अपने संग लेकर जाना ,
फिर कैक्टस तो उगता ही ऊसर में है ..
जलधार न कर बेकार कहीं भी काम ही आएगी ,,
अपनेपन की खाद भी तेरे संग जायेगी ,,
चल छोड़ ...बहुत रक्तरंजित हुआ है मन ..
बहते धारों से ..लहु से सरोबर न कर धरा को ..
बैठ अब धार कर अमन किंचित शब्द नहीं है संग ,,
दिखता है लहू सा रंग ..नजर अब रक्तिम हों गयी इस तरह .."--विजयलक्ष्मी
हमको माप रहे थे या खुद को जाँच रहे थे ..
या बस खेल रहे थे खुद से खुद में यूँही ,
ख्वाबों को पाकर खोना या कह दूँ ....
ख्वाबों में खो जाना ..कुछ दरकार किसे थी ..
माटी को माटी से ललचाया ..पारस सा रंग दिखाया ..फिर
फिर उसपर माटी का पाता मारा ..फिर ..जम कर निकिल लगाया ..
पीतल को कभी चांदी कभी सोना सा बनाया ..
और थक गया मन भी कदमों का चलना दूभर ..
कह गया आज तुम हों ही ऊसर ..
बीज कहाँ तक बोऊँगा..
चल छोड़ हुआ है वक्त बहुत ...किसी और जमीं पे पेड़ लगाऊंगा ..
कब रोका जा चला जा ..पर एक काम करके जाना ...
जितना जल बरसाया और खोदे गड्ढे गहरे ..
उनको भर के माटी से ही जल अपने संग लेकर जाना ,
फिर कैक्टस तो उगता ही ऊसर में है ..
जलधार न कर बेकार कहीं भी काम ही आएगी ,,
अपनेपन की खाद भी तेरे संग जायेगी ,,
चल छोड़ ...बहुत रक्तरंजित हुआ है मन ..
बहते धारों से ..लहु से सरोबर न कर धरा को ..
बैठ अब धार कर अमन किंचित शब्द नहीं है संग ,,
दिखता है लहू सा रंग ..नजर अब रक्तिम हों गयी इस तरह .."--विजयलक्ष्मी
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