" तापमान धरती का बढ़ता ही जा रहा है
मौसम सर्दियों का पीछे हटता ही जा रहा है,
प्रकोप प्रकृति का बढ़ता ही जा रहा है ,,
उफनती नदियों की जिन्दगी कम हो रही है..
जितनी बची है अपने स्वास्थ्य को रो रही हैं
गंगा यमुना पूजित होकर भी वस्त्र धो रही है
कहीं पुष्प कही अस्थि ...कहीं गंदे नालों को ढो रही हैं
धरोहर सांस्कृतिक अस्तित्व को रो रही हैं
मरे जमीर के इंसान ढो रही है ...
हवा गंदगी से भरी पड़ी है किसकदर ,..
प्रतिपल फेफड़ो में भरती मिले जहर
सांस हुई अधूरी है बढ़ता हुआ कहर
pm कई गुना प्रदूषण विकराल हो चुका
नहीं सुधरे जो आज भी तो भविष्य अंधकारपूर्ण हो चूका
विषबेल बढ़ चली नौनिहालों की तरफ ..
देखो नग्न पर्वत जमती नही बर्फ ..
न धूप है न दर्शन सूरज के हो रहे ,,
खिसकते हुए पहाड़ गंदे नद हो रहे
न कूड़े का है ठिकाना न संजीदगी सफाई पर ,,
फिसल रहे हैं पाँव दौलत औ स्वार्थ की काई पर
सम्भल जाओ आज भी तो शायद तकदीर बदल सको
दो चार पीढ़ी और आगे जिन्दा रख सको" ---------- विजयलक्ष्मी
मौसम सर्दियों का पीछे हटता ही जा रहा है,
प्रकोप प्रकृति का बढ़ता ही जा रहा है ,,
उफनती नदियों की जिन्दगी कम हो रही है..
जितनी बची है अपने स्वास्थ्य को रो रही हैं
गंगा यमुना पूजित होकर भी वस्त्र धो रही है
कहीं पुष्प कही अस्थि ...कहीं गंदे नालों को ढो रही हैं
धरोहर सांस्कृतिक अस्तित्व को रो रही हैं
मरे जमीर के इंसान ढो रही है ...
हवा गंदगी से भरी पड़ी है किसकदर ,..
प्रतिपल फेफड़ो में भरती मिले जहर
सांस हुई अधूरी है बढ़ता हुआ कहर
pm कई गुना प्रदूषण विकराल हो चुका
नहीं सुधरे जो आज भी तो भविष्य अंधकारपूर्ण हो चूका
विषबेल बढ़ चली नौनिहालों की तरफ ..
देखो नग्न पर्वत जमती नही बर्फ ..
न धूप है न दर्शन सूरज के हो रहे ,,
खिसकते हुए पहाड़ गंदे नद हो रहे
न कूड़े का है ठिकाना न संजीदगी सफाई पर ,,
फिसल रहे हैं पाँव दौलत औ स्वार्थ की काई पर
सम्भल जाओ आज भी तो शायद तकदीर बदल सको
दो चार पीढ़ी और आगे जिन्दा रख सको" ---------- विजयलक्ष्मी
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