" अक्सर प्रतिद्वंदी नजर आते हैं..
इक दूजे के खिलाफ कटघरे में खड़े पाते हैं
दूरियां कितनी भी हो ..या खिंचे दीवारे नफरत की
मगर सच है यही ...
स्त्री और पुरुष इक दूजे बिन अधूरे रह जाते हैं ,,
सरिता के दो पाटों से साथ चलते जाते हैं ,
स्नेह- धारा से दोनों ही भीगते हैं जब ..
दूरियों नजदीकियों को त्याग पूरे हो पाते हैं ,,
भर जाते घाव सभी महज इक प्रेम से
टूटे फूटे तल्ख रास्ते भी मन को भा जाते हैं
जख्म दुनियावी पुष्प बन महक जाते हैं ,,,
मीरा या राधा.... कृष्ण याद बहुत आते हैं "
----- विजयलक्ष्मी
" कहो तुम, बिखरे हो क्यूँ फिजाओं में ,
आकरके संवर जाओ मेरी वफाओ में ||
खुशबू ,महकाती है जो इन साँसों को,
अब सिमट भी जाओ उन्ही हवाओं में ||
इक तेरा साथ ही यूँ मुनासिब न हुआ
बरसती देखी बूंदे क्या कभी घटाओं में ||
मैं संवर तो जाऊं हर साँझ औ सहर,
चमकना बनके सूरज मेरी निगाहों में ||
बकाया सी आरजू इक आईना हो ,
मिलन रूहानी दिखे इन निगाहों में ||
पशेमां हाल जमाने को बताना क्या ,
उभरे है मुस्कुराहट दर्द के मुहानों में || "
--- विजयलक्ष्मी
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