Saturday, 12 December 2015

" वो सूरज ही था मेरी भोर का जो तारा बनकर चमक रहा था "

" साँझ जरा सी ढलकी
सूरज सहर से कोहरे की रजाई ओढ़े दिखा
बादलों के शामियाने हवा के झूले पर झूलते
कुछ धुंधली सी लालिमा पर स्याही गिर रही थी
आसमान से रात आगे बढ़ रही थी
और याद के मोती बिखरे हुए थे आँख में
निखर उठे स्वर्ण जैसे तप के आग में
अहसास उमड़े इसतरह संसद में जैसे कांग्रेस ,,
लोकतंत्र पर हो चली तानाशाही राजसी
सभी के स्वार्थ जानकर खोमोशियाँ कुछ बढ़ गई
सोचते क्या ठहरकर गुफ्तगू किससे करें
उठ चली फिर नजर आसमां के दुसरे छोर
इक सितारा तन्हा सा तकता मिला धरती की ओर
बंधा सा मन देखता था ...
गगन के उसी छोर..
मौन जैसे बींधता था ..
तभी वो टिमटिमाया ..
धरती तक खिंची लकीर वो रौशनी लुभा रही थी ,,
दोनों हाथ बढ़ाकर बुला रही थी ,,
तन्हा नहीं हो तुम ....मुझको बता रही थी..
स्नेहिल सा बंधन था ...लगा धरती गगन का मिलन था,,
वो सूरज ही था मेरी भोर का जो तारा बनकर चमक रहा था "
 -------- विजयलक्ष्मी

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