" पाश्चात्यीकरण के फेर में मर्यादा पर ठेस ,,
तहजीब भाति नहीं,करें सत्य से परहेज ||
तहजीब भाति नहीं,करें सत्य से परहेज ||
आखर-आखर बिखरे हैं अहंकार के पत्थर
गिरी हुई नियत के, नहीं फेंकने से गुरेज ||
गिरी हुई नियत के, नहीं फेंकने से गुरेज ||
नेताओ के बीच में ईमान बना फुटबॉल
स्वार्थपूर्ति के लिए नीचता रहे सहेज ||
स्वार्थपूर्ति के लिए नीचता रहे सहेज ||
मर्यादित भाषा नहीं , चेहरा दिखे कुरूप
मर्यादित तहजीब ही रखे मुख पर तेज ||
मर्यादित तहजीब ही रखे मुख पर तेज ||
स्वार्थ के धंधे दिखे न्याय कुर्सी अभियान
करते बलात्कारी की फांसी से परहेज ||
करते बलात्कारी की फांसी से परहेज ||
दया-धर्म के नाम पर दिखते आतंकवादी
गौकशी नहीं जुर्म लगे चले जाए परदेस ||" ----- विजयलक्ष्मी
गौकशी नहीं जुर्म लगे चले जाए परदेस ||" ----- विजयलक्ष्मी
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" तहजीब भूल अभिव्यक्ति की देखो ढंग हुए बदरंग ,
प्रश्नचिन्ह भी लगा रहे वही नग्नता को कहे दबंग ".--- विजयलक्ष्मी
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" मुसाफिर बदहवास तलाश मंजिल की क्या करूं ,
चल रही साँस है नहीं किसी की आस , क्या करूं.||
बजते स्वरों से कान दुश्मनों के खड़े हुए ,
नेताओं से परेशान झूठ सच का प्रमाण, क्या करूं ||
रंगत ए वतन बहुत नाजुक हुई आजकल
स्वार्थ की शिनाख्त शिकायत भी किससे क्या करूं ||
कानून का खौफ भी सबको नहीं होता ,
मुर्दा हुए वकील ,,बिकता मिला न्याय , क्या करूं ||
वो बेच रहा है गाय धन के हिसाब पर ,
हर कोई मौकापरस्त मरा पड़ा ईमान, क्या करूं ||
कलदार को माईबाप बना बैठा इंसान ,
मोटा हुआ दलाल,भूखा मरता किसान, क्या करूं ||
कलम मानती नहीं चलने को परेशान .
झूठ सच पर सवार ,सहमी सी आवाज, क्या करूं ||".----------- विजयलक्ष्मी
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