Sunday, 17 November 2013

जीवन श्रृंगार तुम ही

जीवन श्रृंगार तुम ही 
मधुप मधु गंध बहार तुम ही 
चटक चांदनी बन कटार तुम ही 
रसरंग प्रेम बरसात तुम ही 

तृषित चातक करे पुकार 
स्वाति नक्षत्र बरसों जलधार 
जीवन मरण तुम ही सार 
न जलाओ नफरत के अंगार

आंधियां सी क्यूँ चल रही
जीवन बर्फ सी कुछ पिघल रही
सर्द हवा संग तपिश क्यूँ बही
भयभीत इबादत कलकल बही

छलना छलती तो छल जाने दो
लिखी तकदीर मचल जाने दो
द्वंद को भी वक्त से टकराने दो
तस्वीर नैनो से आईने में उतर जाने दो

बहुत खौफ है जीवन सफर का
अनजान मोड़ अपनी डगर का
न कोई खत न मालूम खबर का
न इम्तेहान लो,, अपने सबर का .- विजयलक्ष्मी 

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