Friday, 29 November 2013

जाने तू क्या क्या बूझ गया

मेरे किसी शब्द को सच समझा कब है, बता दो ,
जब जल रहे थे तुमने कहा था ये आग झूठी है ,
झुलस कर राख बन हम उन दालानों तक पहुंचे जहाँ निशां थे तेरे ,
तुमने उन्हें भी पोत डाला काले स्याह रंग में ,
और आंगन धो डाला तुमने ,
तुलसी के दीप की कालिख सा साफ कर पोंछ दिया ,
नदिया में तैरते रहे कश्ती से सवाल बन कर ....
बता किनारा मिला कब ,पतवार भी तोड़ दिया ...
हम डूब समन्दर की लहरों पर अहसासों से बिखरे थे ,
पलकों के घूँघटपट के पीछे कितने सावन बिखरे थे ,,,,,
हश्र वही हर हसरत का ...जीवन का लोलक डोल गया .....
समझ आज भी कुछ न आया ...राहों से क्यूँ डोल गया ...
हमने समझा हम साझी थे तू कैसे बेगाना बोल गया ..
बन गए इतिहास ....डूब गया सूरज भी ..
हमने जिस चादर को श्वेत रंगा था ....उस पर जाने क्या क्या फेर गया ..
हम खुद को पहेली लगने जाने तू क्या क्या बूझ गया ....विजयलक्ष्मी 

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