Tuesday, 5 November 2013

अब पत्थर को फ़िक्र हों गया ..

हों गए खुदारा अब तो बुत हम भी हर नज़र में 
पत्थर दिल तो थे ही अब पत्थर को फ़िक्र हों गया ..


कब्र पर मेरी गुलो की गुजारिश करूं भी किससे 
बोया ही काँटों को सदा कैसे गुलों का जिक्र हो गया .


ये खुशबू कहाँ से उड़ चली सहरा के वाशिंदे है 
इल्जाम ए बेरुखी मगर हर लम्हा जैसे इत्र हो गया .


चुभते रहे थे हम ताउम्र शूल बन हर बात पर
महक कर बिखरा वक्त अपना,उनका जिक्र हो गया.


मौन भी शोर करता है बहुत मरने के बाद मुझमे 
जिन्दा हूँ या मुर्दा ख़ाक हूँ जनाजे का फ़िक्र हो गया .


दरकार ए हमख्याल खुद दरकिनार कर बैठा मूझे
बेख्याली खुद की बेजाँ इल्जामात ए फ़िक्र हो गया . - विजयलक्ष्मी

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