Sunday 17 November 2013

कुछ सहमा सा है मेरे भीतर ये सच है शायद

कुछ सहमा सा है मेरे भीतर ये सच है शायद 
खोने का डर क्यूँ होने लगा भला ...विश्वास हुआ अपने से ज्यादा ,,फिर भी 
कम्पित हो उठता है मन भीतर से 
या मेरी बात कौन सुनेगा फिर ...इस भय से 
तुम उद्वेलित हो जाते हो कभी खिलते हो 
कभी मुरझाये से फूल लगते हो बातों को सुनकर 
कभी चीखते हो और कहते हो साथ दो मेरा ..तो ...लगता मैं जिन्दा हूँ मैं भी 
सूखे नयनो में नीर छलक उठता है जीवन के अहसास से 
तुम नाराज नहीं होते ...मेरे एक कदम आगे निकलने से घुमते हुए
झिडकते नहीं ... सम्बल बनते हो मेरे हलकान हुए क्षणों में
क्या हुआ कभी कभी दूरिया सालती है तो ...

तुम सूरज से चमक उठते हो अँधेरे कोने में जब रात गहरती है .
....तुम साथ हो हर पल मेरे कमजोर होते पलो में भी चट्टान से जब टूटकर बिखरती हूँ
तुम्हे भी भाता होगा कभी तो कभी बुरा भी लगता होगा ..
जीवन के कुछ पल बहुत दूर हैं अनजानी सी राहों पर ठहरे हैं कहीं
किसको इन्तजार कहूं ...उन पलो का ,,

तुम्हारा ,,या उन पलो में झांकोगे तुम जब
पलकों पर ठहरती हैं आकर इन्तजार की घड़ियाँ ,,यही सच है
पर तुम नहीं हो ..ये दुनिया जानती है 

..तुम यही हो ,,ये मैं जानती हूँ ..
...तुम भी जानते हो ..मानों या नहीं 
तुम जानो !! - विजयलक्ष्मी 

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