" टूट गिरी धरती पर रिमझिम जीवन खेला बन बैठा
जिन्दगी पर्दे में जा बैठी ,,जैसे मुझसे जग छुटा
इक कलम में कुछ घायल सी ममता इन्तजार लिए
दामन में अपने एतबार लिए ..
.जाते पलो का श्रृंगार लिए
बूँद बूँद से सागर भरता ..
.बरखा पर बादल ही करता
श्वेत हिम गर जीवन न तजता ...क्यूँकर नदिया का जल बनता
न नदिया बहती न सभ्यता जन्मती ...
न धरती होती क्यूँ अम्बर पलता
झूठ न होता गर दुनिया में ...सत्य कोई भी याद न करता
न भाव भरे मन बहते रिसकर ...न घायल कोई भी पल होता
कितना सुंदर होता वो लम्हा ...खुशियों हर पल होता और तबस्सुम तहरीरो में
दिखती सदा लकीरों में ...हाथो की तकरीरो में ,,
कदमो की तकदीरो में ..
गरीबो और अमीरों में दिल की धडकन जिन्दा होती ..
मानवता न शर्मिंदा होती ..
धर्म कर्म के कामों से ,,जाति भेद के नामो से
नफरत की बन्दूको से ,,
अपनत्व की सन्दूको से ...भरते लम्हे जीवन के
और खुशियाँ खिलखिलाती हर इक आंगन में यारा "--- विजयलक्ष्मी
जिन्दगी पर्दे में जा बैठी ,,जैसे मुझसे जग छुटा
इक कलम में कुछ घायल सी ममता इन्तजार लिए
दामन में अपने एतबार लिए ..
.जाते पलो का श्रृंगार लिए
बूँद बूँद से सागर भरता ..
.बरखा पर बादल ही करता
श्वेत हिम गर जीवन न तजता ...क्यूँकर नदिया का जल बनता
न नदिया बहती न सभ्यता जन्मती ...
न धरती होती क्यूँ अम्बर पलता
झूठ न होता गर दुनिया में ...सत्य कोई भी याद न करता
न भाव भरे मन बहते रिसकर ...न घायल कोई भी पल होता
कितना सुंदर होता वो लम्हा ...खुशियों हर पल होता और तबस्सुम तहरीरो में
दिखती सदा लकीरों में ...हाथो की तकरीरो में ,,
कदमो की तकदीरो में ..
गरीबो और अमीरों में दिल की धडकन जिन्दा होती ..
मानवता न शर्मिंदा होती ..
धर्म कर्म के कामों से ,,जाति भेद के नामो से
नफरत की बन्दूको से ,,
अपनत्व की सन्दूको से ...भरते लम्हे जीवन के
और खुशियाँ खिलखिलाती हर इक आंगन में यारा "--- विजयलक्ष्मी
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