बसंत पंचमी की शुभ एवं मंगलकामना ||
" धार तो तेज होनी चाहिए ...
अगूंठे एकलव्य के... या द्रोण के कटने चाहिए ,
अर्जुनों की तलवार गर चमक है तो चलेगी साथ में ..
जेब वर्ना गद्दीनशीनों की कटनी चाहिए ..
मैल भर के जो उठाये आँख को ..
शूल उसके पार उतार दे.... चलो
वैश्यों की दुकानों को ताला लगा ...कर्म बदल देते है चलो ..
घूसखोरों की औलादों को बाप के साथ.. जेल की हवा तो दिखा
क्या कहूँ ....दरोगा भी जिगर पे पत्थर होना चाहिए ....
द्रोण को कला गर आती नहीं ...रोटी फिर क्यूँ चाहिए ..
आदमी को आदमी की बोटी भला क्यूँ चाहिए..
देख ले सम्भल जा अभी ...वक्त अभी निकला नहीं ..
सूरज को कह से निकल अब ..समय बदलना चाहिए
ज्ञान का दिया ..अंधेरों भी जलना चाहिए
चल , बर्तनों की खनक कान बर गूंजेगी जरूर
लेखनी की धार ... तलवार बन भाजेंगी .. जरूर
एकलव्य अंगूठे क्यूँ दे भला अपने ....
जेब से नोटों की गड्डी...फांसी लगनी चाहिए ..
चल उठ ,साथ चलेगा क्या ....रौशनी कोई दीप से तो जलनी चाहिए
आग जरूरी है तू जला मैं जलाऊँ ...आग वैश्या बनी दुकानों में लगनी चाहिए ..
क्रांति ...की आग ..हाँ अब तो ..लगनी चाहिए ".----------.विजयलक्ष्मी
जेब वर्ना गद्दीनशीनों की कटनी चाहिए ..
मैल भर के जो उठाये आँख को ..
शूल उसके पार उतार दे.... चलो
वैश्यों की दुकानों को ताला लगा ...कर्म बदल देते है चलो ..
घूसखोरों की औलादों को बाप के साथ.. जेल की हवा तो दिखा
क्या कहूँ ....दरोगा भी जिगर पे पत्थर होना चाहिए ....
द्रोण को कला गर आती नहीं ...रोटी फिर क्यूँ चाहिए ..
आदमी को आदमी की बोटी भला क्यूँ चाहिए..
देख ले सम्भल जा अभी ...वक्त अभी निकला नहीं ..
सूरज को कह से निकल अब ..समय बदलना चाहिए
ज्ञान का दिया ..अंधेरों भी जलना चाहिए
चल , बर्तनों की खनक कान बर गूंजेगी जरूर
लेखनी की धार ... तलवार बन भाजेंगी .. जरूर
एकलव्य अंगूठे क्यूँ दे भला अपने ....
जेब से नोटों की गड्डी...फांसी लगनी चाहिए ..
चल उठ ,साथ चलेगा क्या ....रौशनी कोई दीप से तो जलनी चाहिए
आग जरूरी है तू जला मैं जलाऊँ ...आग वैश्या बनी दुकानों में लगनी चाहिए ..
क्रांति ...की आग ..हाँ अब तो ..लगनी चाहिए ".----------.विजयलक्ष्मी
सब कुछ मिला ....नहीं मिला तो ....माँ सरस्वती के चरणों में वन्दन का समान अधिकार .... यहाँ भी सरकारी तौर तरीके ...कायदे कानून मान्य थे.....विद्या की देवी के सौंदर्यीकरण में लक्ष्मी जी नतमस्तक क्या हुई रूप बदल डाला .... युग बदले ....समय चक्र बदले ....हालात बद से बदतर होते चले गये .... कभी विद्या ब्राह्मण के घर की रानी हुई ... लालच ने उसे दौलत की दुकानदारी पर बैठा दिया ......वक्तव्य अर्थ भावार्थ स्वार्थ के वशीभूत हुए ........आजकल वैश्य की दूकान पर दौलत सरस्वती के पैर पीट रही है ....ज्ञान मस्तिष्क और व्यवहार के स्थान पर वैश्या की तरह ....रुपयों में सर्वसुलभ है अन्यथा जन सामान्य के लिए अति दुर्लभ हो चुकी है ..... जिसने दौलत चढ़कर शिक्षा की कागजी कार्यवाही पूरी की उन्होंने जीवनकाल में खर्ची दौलत कई गुना ब्याज पर महसूल की |
हर कोई लूट खसोट में लगा है ... जिसका जहां दांव लग जाये ,,, द्वापर युगीन एकलव्य का अंगूठा द्रोणाचार्य ने क्या माँगा ....मानो पीढ़ियों की वसीयत लिखवा ली ......हर युग में ज्ञान की देवी को अपने घर में गिरवी रखने की खातिर |........अर्जुन ही अकेला वीर कैसे ...... किन्तु सत्य भी यही है ... तब से आजतक एकलव्य के वंशज अंगूठा विहीन रखा .. कोठे पर नचा रहे हैं .. लोगो के घर पानी भर्ती नजर आती हैं ..----- विजयलक्ष्मी
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