" ये सादगी लिए इमानदारी की ही चुप्पी
बे-ईमानों को पिलाती अमृत की घुट्टी " --- विजयलक्ष्मी
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1.
मैहर में मिले जख्म क्यूँ भले से लगे ,,
तलाक कबूल हो कैसे भीनी सी महक उतरती नहीं ||
इक उम्र खोई कमसिन ख्यालों की हमने
लगे "तीन पत्थर " जिन्दगी सफर पर चलती नहीं ||
काश समझा होता इंसान हमे भी कभी तो
बेगैरत ये " रस्म ए हलाला "अब गले उतरती नहीं || ---- विजयलक्ष्मी
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बे-ईमानों को पिलाती अमृत की घुट्टी " --- विजयलक्ष्मी
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1.
मैहर में मिले जख्म क्यूँ भले से लगे ,,
तलाक कबूल हो कैसे भीनी सी महक उतरती नहीं ||
इक उम्र खोई कमसिन ख्यालों की हमने
लगे "तीन पत्थर " जिन्दगी सफर पर चलती नहीं ||
काश समझा होता इंसान हमे भी कभी तो
बेगैरत ये " रस्म ए हलाला "अब गले उतरती नहीं || ---- विजयलक्ष्मी
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वाह से आह तक का ये सफर ,,
हो गयी खुदाई हमसे बेखबर ||
हो गयी खुदाई हमसे बेखबर ||
बासब्र वक्त कटता नहीं चैन से
ख्वाहिश ए जिन्दगी सा रहबर ||
ख्वाहिश ए जिन्दगी सा रहबर ||
ईमान अब खो रहा बेवक्त चैन
खबर की तलाश में हुए बेखबर ||
खबर की तलाश में हुए बेखबर ||
सोचते रहे रपट लिखवाये कहाँ
कोई थाना लिखता नहीं अक्षर ||
कोई थाना लिखता नहीं अक्षर ||
बेलाग सिरफिरी ये साँझ गुजरी
बेखबर की रखे भला कैसे खबर ||
बेखबर की रखे भला कैसे खबर ||
उम्र का इक खुबसुरत ये पडाव
उफ़ तलाश ए उज्र का है सफर ||
उफ़ तलाश ए उज्र का है सफर ||
क्या लिखे बानगी दिल की भला
दिल अपना रहा दिल से बेखबर ||
दिल अपना रहा दिल से बेखबर ||
भूल अहसास दिल के जाये कहाँ
बेरहम दुनिया, सहरा हर सफर ||
बेरहम दुनिया, सहरा हर सफर ||
लौटती है साँस भी धमकाकर
न लौटूं गर कैसे करोगी सबर ||
न लौटूं गर कैसे करोगी सबर ||
बेवफा ये साँस भी तो निभ रही है
क्या मिलेगा तन्हाई को सोचकर ||
क्या मिलेगा तन्हाई को सोचकर ||
मुस्कुरा लेते हैं अब तन्हा पलो में
आह हो या वाह यूँही बीतेगा सफर || -------- विजयलक्ष्मी
आह हो या वाह यूँही बीतेगा सफर || -------- विजयलक्ष्मी
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" जीवन का प्रवाह
न सन्यास न उच्छ्लन्खता
न सियासतदारी है
न रियासतदारी है
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर
न स्वार्थ की कामना
न इश्वर से होने वाला सामना
न इश्वर तुल्य होने की इच्छा
न कृष्ण राम या शिव होने की उत्कंठा
न पर्वत सी पीर न समन्दर के तीर
न दर्द सुमेरु बनने की
न उत्कंठा आकंठ भरने की
क्या करना महान बनू मैं बहुत
न गणना पुष्पित डालो की
न चिंता सांसारिक भालो की
न उद्वेलित मन विरानो सा
न चाहा बागों सा खिलना
विरानो के काँटों में पुष्प बना
घनी धूप में वृक्ष घना
सहरा में बदली सा होकर बरस बरस बरसा दे मना
जब रात अँधेरी चंदा सा चमकू
चमक चांदनी रौशनी भर दू
मुस्कान बना सूखे होठो की
उलझे लट जख्मी आहटो की
बन नदिया सा बहना सिखला दो
मुझको थोडा पत्थर सा बना दो
न राह अधूरी कुछ जीवन की मारामारी
पर्वत पर बर्फ सा थोडा संघर्ष सा
करता विमर्श सा
नफरत को ताले में बंद रखना
प्रेम की धारा को नदिया सा हौसला देना
वृक्ष की खोखर में पंछी का घोसला बनेगा
तिनका चिड़िया दाना ..
जाल पंख जीवन का खेला
जिसको लेकर भी मन चले अकेला
बन सन्यासी त्याग करू जमघट का
लेकिन इच्छा हो वासी जैसे मरघट का
कभी मिलना हो गर प्रभु से अपने
लालसा मुझसे ज्यादा हो
हर बार साथ का वादा हो
जब बिछुडू नमी आँखों में
इंतजार बातो में
रास्ता कटे रातो में
दिन याद में जिन्दगी के साथ में
मयूर से नाचते हो मन के जंगल में
गुरबत हो या सत्ता न हैवानियत देना
मुझे ईश्वरत्व नहीं इंसानियत देना
जीवन का प्रवाह
न सन्यास न उच्छ्लन्खता
न सियासतदारी है
न रियासतदारी है
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर
क्षितिज के उस और मिलना
जहां धरा गगन मिलते हो गले
जहां कोई न दुनियावी तीर चले
जहां फरिश्ते भी रिश्ते से होकर आँखों में तिर जाते है"" --- विजयलक्ष्मी
न सन्यास न उच्छ्लन्खता
न सियासतदारी है
न रियासतदारी है
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर
न स्वार्थ की कामना
न इश्वर से होने वाला सामना
न इश्वर तुल्य होने की इच्छा
न कृष्ण राम या शिव होने की उत्कंठा
न पर्वत सी पीर न समन्दर के तीर
न दर्द सुमेरु बनने की
न उत्कंठा आकंठ भरने की
क्या करना महान बनू मैं बहुत
न गणना पुष्पित डालो की
न चिंता सांसारिक भालो की
न उद्वेलित मन विरानो सा
न चाहा बागों सा खिलना
विरानो के काँटों में पुष्प बना
घनी धूप में वृक्ष घना
सहरा में बदली सा होकर बरस बरस बरसा दे मना
जब रात अँधेरी चंदा सा चमकू
चमक चांदनी रौशनी भर दू
मुस्कान बना सूखे होठो की
उलझे लट जख्मी आहटो की
बन नदिया सा बहना सिखला दो
मुझको थोडा पत्थर सा बना दो
न राह अधूरी कुछ जीवन की मारामारी
पर्वत पर बर्फ सा थोडा संघर्ष सा
करता विमर्श सा
नफरत को ताले में बंद रखना
प्रेम की धारा को नदिया सा हौसला देना
वृक्ष की खोखर में पंछी का घोसला बनेगा
तिनका चिड़िया दाना ..
जाल पंख जीवन का खेला
जिसको लेकर भी मन चले अकेला
बन सन्यासी त्याग करू जमघट का
लेकिन इच्छा हो वासी जैसे मरघट का
कभी मिलना हो गर प्रभु से अपने
लालसा मुझसे ज्यादा हो
हर बार साथ का वादा हो
जब बिछुडू नमी आँखों में
इंतजार बातो में
रास्ता कटे रातो में
दिन याद में जिन्दगी के साथ में
मयूर से नाचते हो मन के जंगल में
गुरबत हो या सत्ता न हैवानियत देना
मुझे ईश्वरत्व नहीं इंसानियत देना
जीवन का प्रवाह
न सन्यास न उच्छ्लन्खता
न सियासतदारी है
न रियासतदारी है
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर
क्षितिज के उस और मिलना
जहां धरा गगन मिलते हो गले
जहां कोई न दुनियावी तीर चले
जहां फरिश्ते भी रिश्ते से होकर आँखों में तिर जाते है"" --- विजयलक्ष्मी
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