Thursday, 29 December 2016

" इतिहास के झरोखे से ............||"

आखिर नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था ? जानिए सच्चाई !
नालंदा विश्वविद्यालय का स्वर्णिम अतीत !!!
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन दुनिया का संभवत: पहला विश्वविद्यालय था, जहां न सिर्फ देश के, बल्कि विदेशों से भी छात्र पढ़ने आते थे। इस विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ने 450-470 ई. के बीच की थी। पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में स्थापित इस विश्वविद्यालय में तब 12 हजार छात्र और 2000 शिक्षक हुआ करते थे।
गुप्तवंश के पतन के बाद भी सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। लेकिन एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव के तुर्क लुटेरे ने नालंदा विश्वविद्यालय को जला कर इसके अस्तित्व को पूर्णत: नष्ट कर दिया।
यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केंद्र था। इस विश्वविद्यालय में विभिन्न धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। इस विश्वविद्यालय की खोज अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा की गई थी। इस महान विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके वैभव का अहसास करा देते हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में अपने जीवन का एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में यहां व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2000 थी। सातवीं शती में जब ह्वेनसांग आया था, 10,000 विद्यार्थी और 1510 आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति रही थी।
नालंदा विश्वविद्यालय को एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाले तुर्क लुटेरे बख्तियार खिलजी ने 1199 ई. में जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया। उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था।
ऐसा कहा जाता है कि बख्तियार खिलजी एक बार बहुत बीमार पड़ गया। उसके हकीमों ने उसे ठीक करने की पूरी कोशिश की, मगर वह स्वस्थ नहीं हो सका। किसी ने उसे नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र से इलाज कराने की सलाह दी। उसे यह सलाह पसंद नहीं आई। उसने सोचा कि कोई भारतीय वैद्य उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान कैसे रख सकता है और वह किसी काफ़िर से अपना इलाज क्यों करवाए। फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा।
जब वैद्यराज इलाज करने पहुंचे तो उसने उनके सामने शर्त रखी कि वह उनके द्वारा दी कोई दवा नहीं खाएगा, लेकिन किसी भी तरह वह ठीक करे, वर्ना मरने के लिए तैयार रहे। बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई, बहुत उपाय सोचा और अगले दिन उस सनकी बख्तियार खिलजी के पास कुरान लेकर चले गए। उन्होंने कहा कि इस कुरान की पृष्ठ संख्या इतने से इतने तक पढ़ लीजिये, आप ठीक हो जाएंगे!
वैद्यराज के कहे अनुसार, उसने कुरान पढ़ा और ठीक हो गया। लेकिन ठीक होने पर खुश होने की जगह उसे बड़ी झुंझलाहट हुई और गुस्सा आया कि उसके हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है ?
बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने व वैद्य को पुरस्कार देने के बदले बख्न्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया। उसने पुस्तकालयों को भी जला कर राख कर दिया। वहां इतनी पुस्तकें थी कि आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू-धू करके जलती रहीं। यही नहीं, उसने अनेक धर्माचार्यों और बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला।
बता दें कि नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केंद्र था। प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी। अत्यंत प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे।
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे। ये श्रेणियां योग्यतानुसार बनाई गई थीं। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्वविद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट्ट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी उपलब्ध है, वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। विद्वान बताते हैं कि उनका एक अन्य ग्रंथ आर्यभट्ट सिद्धांत था। इसके आज मात्र 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का 7वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
3वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णतः अवसान हो गया। मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुर्कों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुंची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुंचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1199 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।

3.
ताजमहल की आयु --- एक वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा 
6 फरवरी 1984 ई.भारतीय इतिहास का एक अविस्मरणीय दिन था इस दिन समाचार पत्रों में एक छोटा परन्तु महत्वपूर्ण समाचार दिखाई दिया । इस समाचार के अनुसार ताजमहल के लकड़ी के द्वार के एक प्रतिरूप (लकड़ी की छिलपट) की आयु (1984में) 625 वर्ष थी और इससे 89 वर्ष कम या अधिक , इस प्रकार वह लकड़ी का द्वार 1359 ईसवी में बना होगा और इस आयु में इस 89 वर्ष के सुधार के पश्चात्‌ उस लकड़ी का द्वार का समय 1450 ई. से 1270 ई.के बीच आता है।
वस्तुतः चमुना-तट पर ताजमहल की दीवार में दो लकड़ी के द्वार थे उक्त द्वारों में से पूर्व की ओर वाले द्वार की लकड़ी का कुछ भाग चाकू की सहायता से छीला गया तथा उसी लकड़ी की छिलपट को वैज्ञानिक शोध के लिये संयुक्त राज्य अमरीका के ब्रुकलिन विश्वविद्यालय भेज दिया गया था ।उस छिलपट की आयु का निर्धारण ब्रुकलिन विश्वविद्यालय के दो वैज्ञानिकों द्वारा रेडियो कार्बन पद्धति द्वारा किया गया था। यह उसी परीक्षण का परिणाम था
इस प्रकार लकड़ी का द्वार और ताजमहल का निर्माण अधिकतम 1270 ई से पूर्व हुआ होगा , परन्तु यदि हम सबसे बाद के 1450 ई. को ही सही मान लें तो भी ताजमहल का निर्माण कम से कम 1450 ई से पहले होना प्रतीत होता है यह वह समय था जिसके लगभग 80 वर्ष बाद शाहजहाँ के बाबा अकबर का भी बाबा बाबर आगरा में प्रथम बार आया था।
इस प्रकार लकड़ी के एक टुकड़े की आयु और ताजमहल का निर्माण काल शाहजहाँ के राज्यारोहण से कम से कम 178 वर्ष से पहले और अधिकतम 358 वर्ष से भी पहले का हो सकता है
इस समाचार पर भारत सरकार ने न तो कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त की और न कोई खण्डन ही किया , न ताजमहल की सही आयु के निर्धारण हेतु किसी प्रकार का शोध कार्य ही आरम्भ किया,
हाँ पता नहीं किसी अज्ञात भय के कारण सत्य छुपाने के लिए वो लकड़ी के द्वार हटाकर खाली स्थान ईंटो से बाद करा दिया गया
उपरोक्त लकड़ी के भाग की आयु निर्धारित करने वालों में एक श्री मारविन मिल्स,जो न्यूयार्क के वास्तुकला विद्यालय में वास्तुकला के इतिहास विषय के व्याखयाता थे उन्होंने भारत सरकार से ताजमहल की वास्तविक आयु निर्धारण हेतु परीक्षण के लिये भारत आने का प्रस्ताव किया था जिस पर
भारत सरकार का उत्तर कुछ ऐसा था कि हमें ताजमहल की आयु का पता है कुछ अन्य शोध हम कर रहे हैं और हम स्वयं सक्षम हैं
वैसे तो ताजमहल की वास्तविक आयु के प्रमाण उस के बन्द कक्षो में छुपे हैं जिन्हें जनता भले न जान पाए परन्तु भारत सरकार एवं पुरातत्व विभाग के अधिकारियों को भली-भांति मालूम है कि उसके अन्दर शाहजहाँ ने क्या छिपाया था !
चित्र में यमुना की ओर लकड़ी का द्वार और बंद कमरे !!

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