Friday, 30 May 2014

"जैसे लहू बहकर हर कोशिका मे बिखरता है "

" सपने समाते कब है खुद से खुदाई के ,
काट छांट कर महीन कर लिए
लम्हे लम्हे में भर लेंगे 
कागज कलम से कोने कोने 
जैसे लहू बहकर हर कोशिका मे बिखरता है 
जान फूंकता सा ...बस इक मुस्कुराहट..
बादल सी बरस जाएगी और भीगते रहेंगे हम उम्र के बाद भी
रात को नहीं मालूम ...अंधेरों की कहानी ..
उनके याराने की कहानी है भी कितनी पुरानी ..
और हमारी आँख में सपने आकार लेते हुए सोचते रहते हैं आज भी
सपने समाते कब है खुद से खुदाई के ,
काट छांट कर महीन कर लिए
लम्हे लम्हे में भर लेंगे
कागज कलम से कोने कोने
जैसे लहू बहकर हर कोशिका मे बिखरता है ".
- विजयलक्ष्मी

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