Monday 23 March 2015

" लाश लावारिस पड़ी है आजकल "

" फिर वही धमाके 
फिर वही मौत के मंजर 
फिर वही आस्तीन के सांप 
फिर वही जहर उगला गली गली 
और हम ढूंढते फिरे कहीं तो जिन्दा मिले 
जो मर रही है सरे शाम चौराहे पर घड़ी घड़ी
कभी धर्म के नामपर
कभी सम्प्रदाय के नामपर
कभी सियासती हथकंडों में
कभी रियासती फंदों में
टूट रही है सांस
खोती जा रही है आस
मालूम हुआ लेटी है आई सी यु में
आखिरी घड़ी का
और दम तोड़ गयी
कभी शब्दों में
कभी जज्बों में
कभी इंसानी जहन में
कभी जिन्दगी के सहन में
तन्हा थी पहले बिकी
फिर फांसी चढ़ाई गयी
शवयात्रा में उसकी
शामिल सभी हुए
मैं ..तुम .तुम्हारे .वो .उनके ...हम ...हमारे
लाश लावारिस पड़ी है आजकल ..
तुम जानते हो उसे
कौन थी वो
..
वही तो थी ...
इंसानियत !!
" - विजयलक्ष्मी 

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