Saturday, 14 March 2015

ए औरत ..बढ़ चल मंजिल की और

" ए औरत कौन करेगा इज्जत तेरी ..?
गर . हत्या की आरोपी होगी
गर ..दहेज़ की खातिर पिता को तिल तिल जलाती होंगी
गर ..भ्रूणहत्या की भागी होगी
गर ..बेटी के लहू की प्यासी होगी ...
गर ..झूठे किस्से घडती होगी
गर ..माँ बाप को बेघर करती होगी
गर ..बहु को जिन्दा जलाती होगी
गर ..बेटी को कमतर समझती होंगी
गर औरत होकर भी औरत को निचा दिखाती होगी
गर और औरत होने पर शर्माती होगी
गर लाज चौराहे उडाती होगी
माना औरत होना दुष्कर बहुत है ..
आजादी मिलना कठिन कर्म है
पुरुष प्रधान समाज प्रथम है
औरत को बढना भी मुश्किल
नई दुनिया घड़ना भी मुश्किल
फिर तू ही जीवनदायिनी
फिर भी तू ही मनभावनी
फिर भी तू ही जग अधिष्ठात्री
फिर भी तू ही मातृशक्ति ..
तू भैरवी तू ही काली
तू अन्नपूर्णा तू ही गायत्री
ममतामयी और सबसे निराली
पुरुष कहे कुछ नहीं होना ..
तुझ बिन कब मुमकिन धरती पर हरियाली होना
तू सम्बल तू ही सहारा ..
ये जग बस तूने ही संवारा
ए औरत ..बढ़ चल मंजिल की और
तुझ बिन नहीं इस दुनिया को ठौर
नदिया बनकर बहना होगा
सफर समन्दर तक करना ही होगा ---- विजयलक्ष्मी

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