" नहीं हूँ मैं यहाँ
करूंगा भी क्या रहकर यहाँ
जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं
बचपन भी क्या एक धोखा नहीं
सुना था ईश्वर रहता था यहाँ कभी
आज गोलिया है संगीनों के साए है
मौत नाचती है सीने पे रोती हुई माए हैं
फिर भी ...फिदायीन आजाद है
इंसानियत आज बर्बाद है
मरने वालो की ज्यादा तादाद है
कभी गर्भ में रहते माँ को मारा
कभी मेरी धरती रंगी लहू से अपनों के
कभी मेरे लहू से
ए खुदा तू ही बता ...क्या तूने लकीरों में बदा
तू सोया है कहाँ ?
या थी तेरी ही मर्जी दामन तेरा भी लहू में रंगा जाये
क्या तेरी प्यास बुझी नहीं जल से
लहू की तलब तुझको उठी क्यूँ
ये दीन कैसा ...कैसा ये मजहब
इंसानियत मौत की खातिर होती तलब
यही इंसाफ गर तेरा ...तो सुन ,,
क्या है तेरी दुनिया में जो इस दुनिया में देखू
खून खराबा मारकाट ,,दहशतगर्दी या बेशर्मी
सरहद में बांटता ..
समन्दर में बांटता
पर्वत में बांटता ..
सहरा में बांटता ..
प्यार से बांटता ...यूँ नफरत न बांटता
तेरी बनाई मूर्तियों ने ही तेरी बनाई मूर्ति तोड़ दी
इंसानियत की साडी हदे ही तोड़ दी
ईमान बिक रहा है चौराहों पर
औरत को खेत इंसा को रेत ..बच्चो पर मौत नचाई
कैसा खुदा है तू ..है ये कैसी तेरी खुदाई
क्या तुझे मानु क्यूँकर तुझे पहचानू
या कहदू तुझे भी ..ए खुदा--- होगा तू जिसका खुदा होगा
तू मेरा खुदा नहीं ... क्यूंकि इंसान हो गया हैवान और...
तुझे पता नहीं "
.-- विजयलक्ष्मी
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