Friday, 26 December 2014

" हवस की खोपड़ी है इंसानी देह पर "

कलम चली रंग दुनिया का लेकर
वही हर कदम नया इतिहास घडते हैं

खौफ ए मौत दरमियाना कद करले
उनके कदम हर लम्हा आगे ही बढ़ते हैं

सत्य की लकीरे झूठ को लील डाले
वक्त के साथ ऐसा इतिहास घडते हैं

रौशनी रूह की फरमान उपरवाले का
इंसानियत के झण्डे मुहब्बत पर पलते हैं

भूख उगने लगती है जब दिमाग में
तब कातिल ही तलवार के भेंट चढ़ते हैं

हवस की खोपड़ी है इंसानी देह पर
रौशनी और रोशनाई अपनी घडते है ---- विजयलक्ष्मी

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