Wednesday 20 January 2016

" मिडिया बना तवायफ पत्रकारिता हुई दलाल ,"

" निशाँ मिटाकर न सोचिये इश्क मर गया ,,
इर्तिकाब ए जुर्म है ये,, जिन्दा है आज भी ||

तुम पत्थर बनो या दरिया मिटना था एक दिन
सूखे कुए झांकिए निशाँ बकाया हैं आज भी ||


दर्द ए दरिया की बधाइयाँ, लोगो हमे भी दो ,,
पूजते हैं श्रीराम को, तम्बू में बैठा है आज भी ||

अमन औ शांति का पाठ यूँ पढ़ने पढ़ाने वालों
तुम्हे अन्न देता अन्नदाता भूखा है आज भी ||

करोड़ो की दौलत वाले गरीबी की उड़ाते मजाक
कम कोई नहीं पांचवां बच्चा जना है आज भी ||

मिडिया बना तवायफ पत्रकारिता हुई दलाल ,
कलम बेचीं बाजार में, नेता नकारा है आज भी ||" ------- विजयलक्ष्मी
( इर्तिकाब-ए-जुर्म =Committing of Crime)

उनके बम भी शायद कुछ शब्दों से हल्के हैं ,,
इसीलिए तो आजकल शब्दों के तहलके हैं ,,
बम बंदूक लगे खिलौना, लहू रंग रगौली 
इसलिए सेकुलर भी अपने वंश बदलते हैं,
अपने रिश्ते छूट मरे दौलत की खातिर मरते हैं
कोई पूछे वो क्या मात-पिता संग जन्मस्थान बदलते हैं ?
अफगानी बाबर की निशानी अपनी सी जिन्हें
जाने क्यूँ वो राम-लला के घर का चित्र देख दहलते हैं ,
देखा नहीं काश्मीर में ..कितना लहू बहा ?
मानवाधिकारी फिर भी उन्ही की चिंता में घुलते हैं
 --------- विजयलक्ष्मी

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