Sunday 9 November 2014

" इक ख्वाब सा...."



" इक ख्वाब सा आँखों में छिपा बैठा है 
नहीं मालूम हकदार भी है या नहीं उसके 

न टूट जाये खौफ बढ़ चला इस कदर 
हर लहर तूफ़ान का सा आगाज करती लगती है

दीप जला है देहलीज पर इंतजार का 
बढ़ता कदम कोई अँधेरा न करदे यहाँ 
श्यामल सी रात चांदनी चादर में लिपटी 
प्रथम किरण बन सहर का आगाज करती लगती है 

लहर लहर उन्मुक्तता से झूलते हुए 
जैसे कश्ती याद की ठहरी हो खेलते हुए 
इक सितारा सा चमक उठा रोशन होकर 
चन्द्रिका या सूर्यरश्मि रौशन आगाज करती लगती है "

--- विजयलक्ष्मी 

1 comment:

  1. होस सकता है मुझे समझ में न आई हो ...लेकिन सोच और लेखन दो अलग अलग कलाएं हैं दोनों मिलकर चलती है तो कविता बनती हैं.

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