" शब्द और व्याकरण आचरण को रंगे कैसे
आंसू जिन्दगी का खारापन पीकर भी रंगहीन है
उसमे कस्तुरी छिपी होती है मनगंध समेटकर
मनगंध घुंघट के भीतर बिफरती तो है बिखरती नहीं
विरला ही पहचानता है उसकी गंध को ...जैसे राधा के रोग कितने वैद्यक
कठपुतली बन चलती है जिन्दगी ...मदारी की थपपर ..
फिर भी ...कदम उठते नहीं ..
मन बादल सा बरसता है उसी छोर जाकर
जानते हो तुम ....सूखे में बरसात नही होती कभी ...
बादल भी वही बरसते हैं जहां जल ही जल हो ..
असंतुलन ...सोचकर देखना कभी ..
आचरण का व्याकरण सूरज को ज्ञात होगा ...विचलित जो नहीं होता कभी
बादलो से आंसू का इतिहास न पूछना ..हर बूँद में समन्दर है उसकी मीठा सा
नदिया तो वजूद खोकर भी खुश है
समा लेने को आतुर समन्दर का खारापन ..उसके अव्यक्त प्रयत्न ..प्रश्न चिह्न है
एक कोलम्बस को किताब में पढ़ा था ..दुसरे को देख रही हूँ तुममे
एक तट से दुसरे तट को खोज रहा है
मन पंछी उड़ता क्यूँ नहीं है ..
ये कौन सा बाजरा खिला दिया तुमने...जिसका स्वाद कभी न चखा था
आदत बिगड़ गयी है शहंशाही छा गयी है दिमाग पर
रेशमी पैबंद सा बहुत महंगा था बाजार का चलन ..
मेरी जेब में तीन पैसे चिंता कैसे आता भला
और तुमने शहंशाही देदी रियासत की ,,
जंगल में जंगली ही रहते हैं ..सभ्य लोग घुमने आते है पिंजरे वाली गाड़ी में बैठकर
कौन तमाशा बना कौन तमाशाई ..?
लो कितनी कहानी छिप गयी ..इस अकविता में ..अकथ सी ,
मेरी किताब के पन्ने तुम्हारे सपनों के पहले पृष्ठ के बाद खत्म होती है ..और
आखिरी पृष्ठ की अधिसूचना के बाद शुरू ..
दूध में यूरिया ..एकदम कोई नहीं मरेगा पीने से ..
वो सच बोला था ....वोट देकर मरेगा उसे ...जैसे पीढिया देती रही है
सुनो ..मेरे आंसू का सच ...
दर्पण में दिखती आँखों में झांक लेना शब्दों में बयाँ नहीं होगा
भौतिकी में घुला हुआ रसायन विज्ञानं जो लहू में घुला है समीकरण में उतर जायेगा ..
भागीरथ ...गंगा को लाये थे कभी ..आज गंगा भागीरथ को ढूंढ रही है आतुरता से
मरी हुई माँ की छाती से चिपक दूध सा पीते बच्चे का धर्म पूछ रही है गोली ..
मुझे अपने सभी पुरखो के नाम नही मालूम ,,मुहम्मद साहेब के कैसे होंगे
हैरान हूँ ...इमान का नंगा सच देखकर ..
हूर का नूर सबको चाहिए ...माँ पर मलानत भेजो औरत जो ठहरी वो "--- विजयलक्ष्मी
आंसू जिन्दगी का खारापन पीकर भी रंगहीन है
उसमे कस्तुरी छिपी होती है मनगंध समेटकर
मनगंध घुंघट के भीतर बिफरती तो है बिखरती नहीं
विरला ही पहचानता है उसकी गंध को ...जैसे राधा के रोग कितने वैद्यक
कठपुतली बन चलती है जिन्दगी ...मदारी की थपपर ..
फिर भी ...कदम उठते नहीं ..
मन बादल सा बरसता है उसी छोर जाकर
जानते हो तुम ....सूखे में बरसात नही होती कभी ...
बादल भी वही बरसते हैं जहां जल ही जल हो ..
असंतुलन ...सोचकर देखना कभी ..
आचरण का व्याकरण सूरज को ज्ञात होगा ...विचलित जो नहीं होता कभी
बादलो से आंसू का इतिहास न पूछना ..हर बूँद में समन्दर है उसकी मीठा सा
नदिया तो वजूद खोकर भी खुश है
समा लेने को आतुर समन्दर का खारापन ..उसके अव्यक्त प्रयत्न ..प्रश्न चिह्न है
एक कोलम्बस को किताब में पढ़ा था ..दुसरे को देख रही हूँ तुममे
एक तट से दुसरे तट को खोज रहा है
मन पंछी उड़ता क्यूँ नहीं है ..
ये कौन सा बाजरा खिला दिया तुमने...जिसका स्वाद कभी न चखा था
आदत बिगड़ गयी है शहंशाही छा गयी है दिमाग पर
रेशमी पैबंद सा बहुत महंगा था बाजार का चलन ..
मेरी जेब में तीन पैसे चिंता कैसे आता भला
और तुमने शहंशाही देदी रियासत की ,,
जंगल में जंगली ही रहते हैं ..सभ्य लोग घुमने आते है पिंजरे वाली गाड़ी में बैठकर
कौन तमाशा बना कौन तमाशाई ..?
लो कितनी कहानी छिप गयी ..इस अकविता में ..अकथ सी ,
मेरी किताब के पन्ने तुम्हारे सपनों के पहले पृष्ठ के बाद खत्म होती है ..और
आखिरी पृष्ठ की अधिसूचना के बाद शुरू ..
दूध में यूरिया ..एकदम कोई नहीं मरेगा पीने से ..
वो सच बोला था ....वोट देकर मरेगा उसे ...जैसे पीढिया देती रही है
सुनो ..मेरे आंसू का सच ...
दर्पण में दिखती आँखों में झांक लेना शब्दों में बयाँ नहीं होगा
भौतिकी में घुला हुआ रसायन विज्ञानं जो लहू में घुला है समीकरण में उतर जायेगा ..
भागीरथ ...गंगा को लाये थे कभी ..आज गंगा भागीरथ को ढूंढ रही है आतुरता से
मरी हुई माँ की छाती से चिपक दूध सा पीते बच्चे का धर्म पूछ रही है गोली ..
मुझे अपने सभी पुरखो के नाम नही मालूम ,,मुहम्मद साहेब के कैसे होंगे
हैरान हूँ ...इमान का नंगा सच देखकर ..
हूर का नूर सबको चाहिए ...माँ पर मलानत भेजो औरत जो ठहरी वो "--- विजयलक्ष्मी
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