" काश हम भी आजादी के सिपाही बन जाते ,
हिंदू मुसलमां से पहले इंसान बन जाते .
ये किस्से जो लहू से लिखे जा है आज तक ,
इंसानी मुहब्बत के जज्बों से लिखे जाते .
न रोती इंसानियत खड़ी चौराहों पे इस कदर ,
न लाशों को किसी की काँधे ढो रोते हुए जाते .
गीत वतन में होते अमन ओ चैन के मेरे ,
खुशियों को हम भी आपस में बाँट पाते .
जय राम जी की कह ,वन्दे मातरम दिलों में ,
वतन की अकीदे में ,ईद मुबारक कह जाते ."
-- विजयलक्ष्मी
" ईद आ गयी लेकिन ...हामिद नहीं पहुंचा ...चिमटे के बिना बूढी दादी की अंगुलियाँ आज भी जल रही हैं ....उस पर संगीनों से उगलती आग का साया ... उस पर ईद का बाजार और इदी में क्या मिलेगा सबको बस यही इन्तजार ...क्या अमन चैन मिलेगा ....?" ----- विजयलक्ष्मी
पूरा मक्कार
और
ईमान से
झूठा
बिन पेंदी का
लोटा
नियत का
खोटा !!
नाम रख लिया
पाक,
काम करता है
नापाक
आतंकियों को देता
पनाह
जैसे
भाई हो इसका
छोटा !!
---- विजयलक्ष्मी
" आतंकी
हमलावरों की
एक सजा,
" फांसी लटकाओ ",
जिसको हो
इस बात का गिला
संग
लटक जाओ ,
आओ
राष्ट्र के नाम की
तख्ती लगाये
देशद्रोहियों को
बाहर भगाओ
जो
वतन का नहीं ,,
उसका
टिकिट कटाओ
भीष्म चाहिए
मगर
दुर्योधन स्वीकार नहीं
दुशासन जैसे दुष्टों को
करना अंगीकार नहीं
कर्ण से दानी
एक सजा,
" फांसी लटकाओ ",
जिसको हो
इस बात का गिला
संग
लटक जाओ ,
आओ
राष्ट्र के नाम की
तख्ती लगाये
देशद्रोहियों को
बाहर भगाओ
जो
वतन का नहीं ,,
उसका
टिकिट कटाओ
भीष्म चाहिए
मगर
दुर्योधन स्वीकार नहीं
दुशासन जैसे दुष्टों को
करना अंगीकार नहीं
कर्ण से दानी
और
ज्ञानी मिले
लेकिन
मृत्यु अभिमन्यु की
चक्रव्यूह में स्वीकार नहीं
धृतराष्ट्र रहे राज्य में
लेकिन
राजा स्वीकार नहीं ".
लेकिन
मृत्यु अभिमन्यु की
चक्रव्यूह में स्वीकार नहीं
धृतराष्ट्र रहे राज्य में
लेकिन
राजा स्वीकार नहीं ".
--- विजयलक्ष्मी
" मैं भारत की बेटी
मुझको डर है ,
कहीं हामिद
आतंकी न बन जाये ,
इंसानियत का जामा
खंजर में बदल न जाये ,
हमने ईद की इदी में
शांति चाही सदा ,,
जाने क्यूँ सोचकर डर लगता है
" हामिद मुकर न जाये "
बस एक दुआ मांगी है उठाकर हाथ ,,
हामिद दूर तक न निकल जाये ,
सुनता हो गर आवाज ....
" लौट कर घर आ जाये " "
मुझको डर है ,
कहीं हामिद
आतंकी न बन जाये ,
इंसानियत का जामा
खंजर में बदल न जाये ,
हमने ईद की इदी में
शांति चाही सदा ,,
जाने क्यूँ सोचकर डर लगता है
" हामिद मुकर न जाये "
बस एक दुआ मांगी है उठाकर हाथ ,,
हामिद दूर तक न निकल जाये ,
सुनता हो गर आवाज ....
" लौट कर घर आ जाये " "
---- विजयलक्ष्मी
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