Saturday 11 July 2015

" गधे घोड़े नहीं ...हांकना है तो हाथी को हांककर दिखाइए "

" हिंदी साहित्य में भिन्न विधाएं ...आखिर तक पुरानी लकीरे पीटीये ...
कभी उत्तर पंथी साहित्य के नाम पर कभी दक्षिण पंथी कलम को लेकर ...
जिन सीमाओं को एक बार तय कर दिया .....बस कर दिया ..
उसका विस्तार क्यूँ ?.........
और 
अगर यही पूछे कि विस्तार क्यूँ नहीं ....
क्यूँ न साहित्य को आजाद कर दिया जाये कुछ बेड़ियों से ....
साहित्य अर्थात जो सहित ही ...मतलब साथ लेकर चले मगर
..किसे ....राजाओं के भाट चारण नहीं ...
प्रगति को आज की जरूरत को
भारतीय छाप को ..
मानव के संताप ..
जीवन के अधुनाधिक माप को
थर्मामीटर के पैमाना बदलकर नये रूप को प्राप्त हो गया लेकिन ...
साहित्य आज भी स्त्री सौन्दर्य में ही रीझता दिख रहा है .
राजाओ की चाटुकारिता और पासों की चौपड़ ..
वह रे इंसानी फितरत अँधा बांटे रेवड़ी ...तो देगा भी किसे .......?
मुझे तो नहीं मिलनी ..
जब साहित्य का अर्थ नहीं आता तो बहस क्यूँ ?..ये भी सवाल है
क्या करें केजरीवाल पार्टीवाल हो गये ,,राहुल परिवारवाल हो गये
अखिलेश उत्तरप्रदेश का क्लेश तो फिर क्यूँ हो नवीं समावेश
रोइए ..या गाइए ..मगर हमारी हिंदी को बचाइए
गधे घोड़े नहीं ...हांकना है तो हाथी को हांककर दिखाइए
वरना व्यर्थ खड़े गाल मत बजाइए ..
अजी मुफ्त के चन्दन में लिप्त सत्ता से चिपक जाइए
" ----- विजयलक्ष्मी

1 comment:

  1. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete