Sunday, 1 February 2015

" ए कवि .. कभी न लिख सकोगे जिसे कहते हो तुम कविता"

ओह ,अकेली ,
नितांत अकेली !
गजब ...कैसे सम्भव है ऐसा हो जाये 
तुम तो औरत हो ..
हर भोर निकलती है जीवन का श्रृंगार किये जानती हो न 
धरती खनक कर ठुमक उठती है
सिंदूरी चुनर ओढ़े ..सूरज से भी पहले ..और तुम ..उससे भी पहले
रात सोचकर सोई थी न इस सुबह के लिए
नींद भी करती है पूरी या नहीं ..
जब तुम्हे सोना चाहिए था खुद को खुद में समेटकर ,,लेकिन ...
प्रात: पेट पूजा की फ़िक्र ..टिफिन कुछ लम्हे rचिड़िया चहक उठी आंगन में.. कौन सी है ?
चिहुक उठा था मन.. झटक दिया वक्त के लम्हों को पकड़ना था उसे तो
चाय ... पानी घर मुह बाए देख रहा है उसे ..मुझे कब सम्भालोगी तुम ,
दोपहर की नाक पहले ही पकती नजर आई और नहीं था कोई लम्हा अपने लिए
पसीने की एक बूँद उभरकर ...लकीर बनती चली कभी कपोल पर और.. टपक !
टीवी में उभरा एक गाना ..कुछ रुनझुन सा .. मन थिरक सकता था लेकिन ..
औरत चारदीवारी के भीतर क्या आजाद है पूरी तरह से
बहराल घर है न उसका ....लेकिन
घर परिवार रिश्ते-नातेदार ..गुनगुना सकती है वो भी मधुर गीत लेकिन ..
आईने के सामने जाकर ठिठकी तो थी इक बार ..
एक लट उलझाकर सुलझा सकती थी अपनी नजरो के सामने ..लेकिन
घर के किसी कोने में वो खुद अकेली नहीं रहती अपने मन से उन्मुक्त
कब उठती है अपनी इच्छा से आँखों को खोलकर ,,
या सो सके कहकर ...नहीं उठेगी वो आज किसी की खातिर
या ..आज होटल बंद है उसका जाओ यहाँ से ..छुट्टी है मुझे भी गुनगुनाना है एक गीत
या फिल्म-अभिनेत्री सा इतराना है जिसकी तारीफे सुनकर तकती रह जाती है खुटकर भी दिनभर ,,
खीज उठता है मन कहने को --
"बुला लो न घर में चकरघिन्नी बनेगी तो आटे-दाल का भाव "
निकल गये कितने पड़ाव उम्र के ...कब बालो में सफेदी चमकने लगी....आज सोचा ..
एक पल को ...कैसी लगती हूँ मैं आज देखूं तो जरा ...लेकिन
सफेदी जैसे मुह चिढ़ा रही थी इस उम्र में ... अब आइना देखने को क्या बचा है ?
थिरके कदम क्या उम्र बची है तुम्हारी अब ?
आँखों के नीचे की लकीरे पीट रही थी दरवाजा बहुत तेजी से ...शायद ,,
कह रही थी अब !!.. उम्र ढुलक गयी मुट्ठी की रेत सी ,,
नजर नीची किये जुट गयी ..उसी तपस्या में ..जिसका परिणाम निर्भरता ही था सदा से
समाज ,परिवार, रिश्ते -नातेदार कोई नहीं आया कहने कभी ...
आओ तुम भी जी सकती हो स्वतंत्र होकर ,,
और पिता की झुकी आँखों का ख्याल ,,माँ का बीमार सा चेहरा ..बंद करता रहा मुझे
क्या कहू किसी को ..मैं एक औरत हूँ ..
जन्म और जीवन मेरे अपने कब थे ..जब मेरे अपने हुए तो ..मैं औरत नहीं लगी किसी को
सजावट और नजर सेंकने का साधन मात्र बनी |
क्या हुआ क्या ये सच नहीं है ...अगर नहीं तो कभी झांक लेना उन लम्हों में ,
जीवनसाथी कही गयी बनी कब ?
हमसफर सुना बहुत बार लेकिन हुआ सफर कब ?
मुझे खामोश ही रहने दो ..
मेरे एकांत में न झांको ए कवि ..
कभी न लिख सकोगे जिसे कहते हो तुम कविता | --- विजयलक्ष्मी

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