Friday, 23 November 2012

खेत में बीज बो दिया है ...

घनीभूत अहसास की परतें जब कोहरा बन छा जाती है ,
कोई रुपहली सी रौशनी फिर दीप जला जाती है ,
उड़ जाते है दर्द के पहरे और हवाएं सम्भल सम्भल पग धरती हैं ,
खिलते सावन की कोई रंगोली पुष्पों सा महका जाती है ,
पुष्प डाली जो भेजी तुमने हाथों में आकर खुशबू हाथों में भर जाती है,

तितली से पूछो कितने बसंत देखने की चाहत राहत पाती है ,,,,
सहमे शब्दों को शिलालेख पर पढ़ लो अब ,
मिट्टी को मिट्टी ,मिट्टी से भी मिट्टी ...
पर फिर भी कोई तो अहसास बाकी क्यूँ है ,
उन्मुक्त आकाश मगर सरहद तो तय है ,
बारिश का बरसना तय है तो ...वक्त के साथ बादल आवारा होता क्यूँ है ?
क्यूँ खिलते है दर्द भरे नगमे ..तुम .....ही जानों ...
मौसम उधार तो मोल बता दो अब क्या सम्भव है बिक पाना ?
ये बाजार बहुत बेदर्द बहुत बेबाक हुआ ,कीमत की बात ....सुना दे फिर ..
वश में होगा सोचेंगे ...वर्ना खो जायेंगे ...
खेत में बीज बो दिया है फसल दे जायेंगे .- विजयलक्ष्मी

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