Wednesday 10 September 2014

" इक गुनाह तो मेरा था ,,"

" इक गुनाह तो मेरा था ,,
उससे बड़ा कोई गुनाह क्या 
सिर्फ यही "एक लडकी थी "
मेरे मन में उगे कुछ सपने थे 
लगता था सब यहाँ मेरे अपने थे 
मुझको अकेली डगर पर देखकर ललचाता हर मुसाफिर 
कभी तन्जकशी कभी राह डसी 
कभी दूरतक मापना डगर ,,
न समझा तुमने कितना मुश्किल सफर 
तुम पिता हुए जब मेरे सपने जरूरी लगे थे कब 
तुम भाई थे खुलकर हंसना तुम्हे रास आया कब
तुम दुनिया बने ..हम आंख में चुभने लगे
जब जन्म लिया वक्त ने डसा
फिर हर कदम सामाजिकता में फसा
एक बात सच कहना बिलकुल सच ..
सब औरत को निकृष्ट क्यूँ समझते है
बिना विरोध चलती है वो
भीतर भीतर कितना जलती है वो
मारकर सपने सभी के सपने पूरे करती है वो
फिर भी हर बार कभी दहेज तो कभी तेजाब से भी जलती है वो
हे पुरुष ..जब तुम जले शोर हुआ
जब हम जले तू विभोर हुआ
सोचना जीवन मेरा था लेकिन किसका जोर हुआ
कभी आचार में कभी व्यवहार में फसी है वो
हर बार सिर्फ नींव ही बनी है वो "
-- विजयलक्ष्मी 

5 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (12.09.2014) को "छोटी छोटी बड़ी बातें" (चर्चा अंक-1734)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. लड़कियां समझती हैं लड़की होना !
    मगर लड़कियों को ही यह भी बताना है कि "लड़की होना गुनाह नहीं "!

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  3. सत्य से मुकाबला ही एक और केवल एक ही जवाब है.
    हां,मैं एक नारी हूं.

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  4. बड़ा संवेदनशील विषय चुना है … कमजोरी और ताकत एक ही सिक्के के दो पहलु है

    आज की सबसे बेहतरीन पोस्ट कोई पढ़ी है तो वो यही है
    लिखावट में सादगी और गंभीर बात कह देना कोई आप से सीख सकता है

    रंगरूट

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  5. नींव इमारत का आधार है...उसके बिना इमारत भरहरा के गिर जाये...लोगों के नज़रिये का क्या कहें...

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