Thursday, 9 February 2017

" सुना है चाँद को नुमाइन्दगी ए मुहब्बत "

सुना है चाँद को नुमाइन्दगी ए मुहब्बत
श्वेत वर्णा चांदनी भी दाग न छिपा सकी ||

चुभन हुई पलक पर आँख में स्वप्न सी
नदी बन संवरी, खारापन न मिटा सकी ||

भूख मिली बिखरी मुखिया के द्वार पर
करोड़ो डकारे गये ,,गरीबी न हटा सकी ||

इज्जत औ इजाजत को गुलाम न समझ
नियत का खोट तेरी ,बाते न समा सकी ||

ईमान दिखाने को नहीं निभाने की बात है
तेरे झूठ की नदी,, किनारे न बना सकी ||

मांगता न सबूत कभी तू खुद को भी आँक
झूठ की झड़ी जमीर की भूख न मिटा सकी ||

पद-गरिमा का बखान शोभा नहीं देता
अपनी करनी तेरी फजीहत बचा न सकी ||

जिसकी सरकार "अच्छे दिन " पूछता फिरे
कितना ईमान बाकी है आइना न दिखा सकी ||
-- विजयलक्ष्मी

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