Friday 11 September 2015

"पागल मैं अभी हूँ,,"



" "पागल मैं अभी हूँ,,"
सुना और आँखे मुस्कुरा दी
और दिल इतरा उठा 
जैसे प्रेम समन्दर डुबा ही देगा
कितने गोते लगा बैठा मन गंगासागर में 
शायद पूरे एक सौ आठ , 
यद्यपि गिन तो न सका मन ..
और दूसरे ही पल लगा जैसे तपती जलती आग निगल रही है
मेरे हक की सीमा कलमबंद हुई वसीयत में
लेकिन सुनो...मैंने एक पोटली बना ली हैं 
......ये उदासी मेरे साथ ही जाएगी 
" अनुबंधित हो चुकी है वो,"
यूँभी तुम्हे अच्छी नहीं लगती वो 
खुशियों के पलो का पूरा अशेष गोदाम यही रहेगा..
उदासी पर मालिकाना हक लिख चुके हो 
हमारे नाम
और 
मेरी वसीयत में बस मुस्कुराहट 
सुनहरी यादे...खिलखिलाती कलियाँ
नृत्य करती इतराती इठलाती तितली 
गुंजारित भ्रमर ...महका सा आंगन 
धुले-पुछे अहसास ,,
महकते ख्यालात 
खुबसुरत ख्वाब 
और ....
उनमे बसे ... हम 
संग रुपहले से अहसास
जैसे तुमने फिर कहा अभी 
"पागल मैं अभी हूँ,," "
----- विजयलक्ष्मी


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